SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५५ सोहना मे महा महेश्वर हैं या रत्न द्वीपत छु नियम नामा रत्न पहण कर, काहेते चिंताके भारके वश होय रहा है, महापुरुषनिके त्याग खेका कारण नाहीं । जैसे काई रत्न द्वीपमें प्रवेश करे अर वाका मन भ्रमे जो मैं कैसा रन लू तैसे इसका मन पाकुलित भया जो मैं कैसा वत लू । यह रावण भोगासक्त सो याके चित्तमें यह चिन्ता उपजी जो मेरे खान पान तो सहज ही पवित्र है । सुगंध मनोहर पौष्टिक शुभ स्वाद मांसादि मलिन वस्तुके प्रसंग रहित आहार है अर अहिंसा व्रत आदि श्रावकका एक हु ब्रत करिव समर्थ नहीं, मैं अणुव्रा हू धारवे समर्थ नहीं तो महाप्रत कैसे धारू, माते हाथी समान चित्त मेरा सर्व वस्तुविषे भ्रमता फिरै है, मैं आत्मभावरूप अंकुशसे याको वश करचे समर्थ नाहीं । जे निग्रंथका ब्रत धरै हैं ते अग्निकी ज्वाला पीवै हैं अर पवनको वस्नमें वांधे हैं पर पर डो उठ वै हैं। मैं महा शूरवीर भी तप ब्रत धरने समर्थ नहीं । अहो धन्य हैं वे नरोत्तम! जो मुनिना धारे हैं, मैं एक यह नियम थरू जो परस्त्री अत्यन्त रूपवती भी होय तो ताहि बलात्कार करे न इच्छू अथवा सर्वलोकमें ऐसी कौन सावनी नारी है जो मोहि देखकर मन्मथको पड़ी विफल न होय अथवा ऐसी कौन परस्त्री है जो विवेकी जीवोंके मनको वश करै। कैसी हैं परस्त्रो, परपुरुष के संयोगकरि दूषित है अंग जाका, स्वभाव ही करि दुर्गन्ध बिष्टाकी राशि ताविर्षे कहा राग उपजै ऐसा मनमें विचार भावसहित अनन्तवीर्य केवली को प्रणाम कर देव मनुष्य असुरोंकी साक्षितामे प्रगट ऐना बचन कहता भया-हे भगवान! इच्छारहित जो परनारी ताहि हूं (मैं) न से। यह मेरे नियम है । अर कुम्भकर्ण अहंत सिद्ध साधु केवलीभाषित धर्मका शरण अंगीकार कर सुमेरु पर्वत सारिखा है अबल चित्त जाका सों यह नियम करता भया जो मैं प्रात ही उठकर प्रति दिन जिनेन्द्रकी अभिषेक पूजा स्तुति कर मुनिकों विधिपूर्वक आहार देकर आहार करूंगा । अन्यथा नहीं मुनिके श्राहारकी बेला पहिले सर्वथा भोजन न करूगा अर सर्व साधुश्रोंको नमस्कार कर और भी घने नियम लिये अर देव कहिये कल्पवासी असुर कहिये भवन त्रिक पर विद्याधर मनुष्य हर्षसे प्रफुल्लित हैं नत्र जिनके, सर्व केवली को नमस्कार कर अपने अपने स्थानक गए । रावण भी इन्द्रकीसी लीला धरै प्रवल पराक्रमी लंकाकी ओर पयान करता भया अर आकाशके मार्ग शीघ्र ही लंकामें प्रवेश किया। केसा है रावण ? समस्त नरनारियोंके समूहने किया है गुण वर्णन जिसका अर कैसी है लंका ? वस्त्रादि कर बहुत समाती है । राजमहलमें प्रवेश कर सुखसे तिष्ठते भए । राजमन्दिर सर्व सुखका भरा है। पुण्याधिकारी जीवनिके जब शुभकर्मका उदय होय ह तब नानाप्रकारकी सामग्रीका विस्तार होय है। गुरुक मुखतें धर्मका उपदेश पाय परमपदके अधिकारी होय हैं ऐसा जान कर जिनश्रुविमें उद्यमी है मन जिनका त वारंवार निजपरका विचारकर धर्मका सेवन करें। विनयकर जिन शास्त्र सुननेवालोंके ज्ञान हाय है सो रविसमान प्रकाशको धारे है, मोहतिमिरका नाश करे है। इति श्रीरविषेगाचार्यविरांचत महापद्मपुराण सस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै अनंतवीर्य केवलीके धर्मोपदेशका वर्णन करने वाला चौदहवां पर्न पूर्ण भया ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy