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________________ पग-पुराण सर्वज्ञ जो वीतराग हैं तिन्होंने दुख का कारण कहा है । तब संवर्त ब्राह्मण कोपकर कहता भया अहो अत्यन्त मूढता तेरी , तू सर्वथा अमिलिती बात कहै है । तैंने कोई सर्वज्ञ रागवर्जित वीतराग कहा सो जो सर्वज्ञ वीतराग होय सो वक्ता नहीं अर जो वक्ता है सो सर्वज्ञ वीतराग नहीं पर अशुद्ध मलिन जे जीव उनका कहा बचन प्रमाण नहीं अर जो अनुपम सर्वज्ञ है सो कोई देखने में नहीं आवै इसलिए वेद अकृत्रिम है वेदोक्त मार्ग प्रमाण है वेदविर्ष शुद्र विना नीन वर्णो को यश कहा है, यह यज्ञ अपूर्व धर्म है स्वर्गके अनुपम मुख देव है वेदके मध्य पशुवों का बथ पाप का कारण नहीं । शास्त्रों में कहा जो मार्ग सो कल्याण ही का कारण है अर यह पशुओं की सृष्टि विथाताने यज्ञ होके अर्थ रचो है ताते यज्ञमें पशुके वथका दोष नहीं है। ऐसे संवर्त ब्राह्मणके विपरीत वचन सुन नारद कहते भए-हे विप्र! तैने यह सर्व अयोग्यरूप कहा है। कैसा है तू ? हिंसामार्गसे दूपित है आत्मा जाका । अब तू ग्रन्थार्थका यथार्थ भेद सुन । तू कहै है सर्वज्ञ नहीं सो यदि सर्वथा सर्वज्ञ न होय तो शब्दसर्वज्ञ अर्थसर्वज्ञ बुद्धिसर्वज्ञ यह तीन भेद काहे को कहे । जो सर्वज्ञ पदार्थ है तो कहने में आवै जैसे सिंह है तो चित्राममें लिखिए है तातै सर्वका देखनेहारा सर्वका जाननेहारा सर्वज्ञ है । सर्वज्ञ न होय तो अमूर्तिक अतेंद्रिय पदार्थको कोन जाने तातें सर्वज्ञका वचन प्रमाण है पर तैने कहा जो यज्ञमें पशुका बध दोपकारी नहीं सो पशुको बध समय दुःख होय कि नहीं जो दुःख होय है तो पापह होय है जैसे पारधी हिंसा कर है सो जीवनको दुख होय है पर तैने कही विधाता सर्वलोकका कर्ता है अर यह पशु यज्ञके अर्थ बनाए हैं सो यह कथन प्रमाण नहीं। भगवान कृतार्थ उनको सृष्टि बनानेसे क्या प्रयोजन अर कहोगे अंसी क्रीडा हे सो क्रीड़ा है तो कृतार्थ नहीं बालक समान जानिए अर जो सृष्टि रचै तो आप सारखी रचै । वह सुख पिण्ड अर.यह सृष्टि दुःखरूप है। जो कृतार्थ होय सो कर्ता नहीं अर कर्ता होय सो कृतार्थ नहीं जिसके कछु इच्छा है सो करै जिनके इच्छा है ते ईश्वर नहीं है। ईश्वर विना समर्थ नहीं। तातें यह निश्चय भया जिसके इच्छा है सो करने समर्थ नही अर जो करने समर्थ है ताके इच्छा नहीं इसलिये जिसको तुम विधाता कर्चा मानो हो सो कर्मकर पराधीन तुम सारखा है भर ईश्वर है सो प्रमूर्तिक है, जिसके शरीर नहीं सो शरीर विना कैसे सृष्टि रचै । अर यज्ञके निमित्त पशु बनाए सो वाहनादि कर्मविर्षे क्यों प्रवर्ते तातें यह निश्चय भया कि इस भवसागरमें अनादिकालसे इन जीवोंने रागादि भावकर कर्म उपार्जे हैं तिनकर नाना योनिमें भ्रमण कर हैं यह जगत अनादि निधन है, किसीका किया नहीं, संसारी जीव कर्माधीन हैं अर जो तुम यह कहोगे कि कर्म पहले हैं या शरीर पहिले हैं ? सो जैसे पीज अर वृक्ष तैसे कर्म अर शरीर जानने । बीज से वृक्ष है अर वृक्षसे बीज है, जिनके कर्मरूप व ज दग्ध भया तिनके शरीररूप वृत्त नहीं पर शरीर वृक्ष विना सुख दुखादि फल नहीं इसलिए यह आत्मा मोक्ष अवस्थामें कर्मरहित मन इंद्रियों से अगोचर अद्भुन परम आनन्दको भोगे है । निराकार स्वरूप अविनाशी है सो यह अविनाशी पद दया धर्मसे पाइए है । तू कोई पुण्यके उदयकर मनुष्य हुवा ब्राम्हस्यका कर पाया तातें पारधियोंके कर्मसे निवृत्त हो अर जो जीवहिंसासे यह मानव स्वर्ग पाते हैं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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