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________________ पल-पगण रोवती भई सो नारद महाधर्माला यह वृत्तात सुनकर म्बनितमीप शोकका भरा आया उसे देखकर अत्यन्त रोक्ने लगी र सिर कूटनी भई, शोक वर्ष अपने बंधुको देखकर शोक अतीव बढे है । तब नारदने कही-हे माता! काहको वृथा शोक करो हो, वे धर्मात्मा जीव पुण्याधिकारी सुन्दर है चेष्टा जिनकी, जीतव्यको अस्थिर जान तप करनेको उद्यमी भए हैं सो निर्मल है बुद्धि जिनकी, अब शोक किएसे पीछे घर न आयें या भांति नारदने सम्बोधी तव किंचित् शोक मंद भया, घरमें निष्ठी, महा दुःखित भरतारकी स्तुति भी करै अर निंदा भी करै। यह तीरकदम्बके वैराग्यका वृत्तांत सुन राजा ययाति तत्वक वेत्ता वरः पुाको राज देय महामुनि भए वसन्ना राज्य पृथ्वीवि प्रसिद्ध भया, आकाशदुल्य स्फटिक मारण उनके सिंहासनके पावे बनाए उस सिंहासन पर तिष्ठना लोक जाने कि राजा सत्यके प्रतापारि आकाशविष निराधार तिष्ठै है। अथानन्तर हे श्रेणिक ! एक दिन नारदके अर पर्वतके चर्चा भई तब नारदने कही कि भगवान वीतराग देवने थर्म दाय प्रकार प्ररूपा है-एक मुनिका दूसरा गृहस्थीका। मुनिका महाब्रतरूप है गृहस्थी का अणुव्रतरूप है । जीयहिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनका सर्वथा त्याग सो पंच महाव्रत तिनकी पच्चीस भावना यह सुनिता धर्म है अर इन हिंसादिक पापोंका किंचित् त्याग सो श्रावकका व्रत है । श्रावकके व्रतों में पूजा दान शास्त्रविष मुख्य कहा है पूजाका नाम यज्ञ है "अजैर्यष्टव्यं" इस शब्दका अर्थ मुनियों ने इस भांति कहा है जो बोने से न उगें जिनमें अंकुर शक्ति नहीं ऐसे शालिय तिनका विवाहादिक क्रिया विष होम करिए यह भी आरम्भी श्रावककी रीति है ऐसे नारदके वचन मन पापी पर्वत बोला-अज कहिये छेला (बकरा) तिनका पालम्भन कहिये हिंसन उसका नाम यज्ञ हे । तब नारद कोपकर पर्वत दुष्ट से कहते भये-हे पर्वत ! ऐसें मत कहै, महा भयंकर वेदना जिसविष ऐसे नरकमें तू पड़ेगा। दया ही धर्म है, हिंसा पाप है। तब पर्वत कहने लगा मेरा तेरा न्याय राजा वसुपै होयगा जो झूठा होयगा उसकी जिह्वा छेदी जायगी । इस भांति कहकर पर्वत मातापै गया। नारदके अर याके जो विवाद भया सो सर्व वृत्तांत मातासे कहा तब माताने कहा कि तू झूठा है तेरा पिता हमने व्याख्यान कहता अनेकवार सुना है जो अज वोई हुई न उगे ऐसी पुरानी शालिय तथा पुराने यव तिनका नाम है छेलेका नही, जीवोंका भी कभी होम किया जाय है ? तू देशान्तर जाय मांसभक्षणका लोलुपी भया है । तें मानकं उदयसे झूठ कहा सो तुझे दुःखका कारण होयगा। हे पुत्र, निश्चयरं ती तरी जिह्वा दी जायगी। मैं पुण्यहीन अभागिना पाते अर पुत्ररहित क्या करूंगी इसभांति पुत्रसे कहकर वह पापिनी चितारती भई कि राजा वसके गुरुदाक्षणा हमारी धरोहर है ऐसा जान अति श्राकुल भई । वसुके समीप गई। राजान स्वस्तिमतीको देख बहुत विनय किया । सुखासन बैठाई हाथ जद बता भवा-हे माता, तुम आज दुखित दीखो हो जो तुम आज्ञा करो सोही करू । तब स्वस्तिमती कहती भई-हे पुत्र, मैं महा दुःखिनी हूं जो स्त्री अपने पविसे राहत होय उसको काहेका सुख, संसारमें पुत्र दो भांतिके हैं एक पेटका जाया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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