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________________ नौवा पर्व बालीने कही अहो-मी हो अपनी प्रशंसा करनी योग्य नहीं तथ पि मैं तुमको यथार्थ कहूहूं कि इस रावण सेना सहित एक क्षणमात्र बायें हाथ की हथेलीसे चूर डाग्नेको समर्थ हूं परन्तु यह भोग क्षणनिश्वर हैं इनके अर्थ ऐसा निर्दय कर्म कौन करै जब क्रोधरूपी अग्निसे मन प्रज्वलित होय तब निर्दय कर्म होय है । यह जगतके भोग केलेके थं न समान असार हैं जिनको पाकर मोहवन्त जीव नरकमें पड़े हैं। नरक महा दुःखोंसे भरा है, सर्व जीवोंको जीतव्य वल्लभ है सो जीवोंके समूहको इतकर इन्द्रयोंके भोग सुख पाइए है ऐसे भीगोंमें गुण कहां । इन्द्रिय सुख दुःख ही है ये प्राणी संसाररूपी महाकूषमें अरहटकी घड़ीके यंत्र समान रीती भरी करते रहते हैं । यह जीव विकल्प जालसे अत्यन्त दुःखी हैं श्री जिनेंद्र देवके चरण युगल संसारसे तारणेंके कारण हैं उनको नमस्कारकर और कैसे नरसार करूं? मैंने पहिले ऐसी प्रतिज्ञा करी है कि देव गुरु शास्त्रके सिवाए और को प्रणाम न करू नाते मैं अपनी प्रतिज्ञा भंग भी न करू अर युद्धविर्षे अनेक प्राणियोंका प्रलय भी न करू बल्कि मुक्ति की देनहारी सर्व संगरहित दिगम्बरी दीक्षा थरू, मेरे जो हाथ श्रीजिनराजकी पूजा प्रवरा, दानविष प्रवरतें अर पृथ्वीकी रक्षाविषै प्रवरतें घे मेरे हाथ कैसे किसीको प्रणाम करें अर जो हम्त कमल जोड़ा पाया किकर होवे उसका कहा ऐश्वर्य ? भर कहा जीतव्य १ वह तो दीन है असा कहकर सुग्रीवको बलाय आज्ञा करते भये कि-'हे बालक! सुनो, तुम रावणको नमस्कार करो न करो अपनी बहिन उसे देवो अथवा मत देवो मेरे कछु प्रयोजन नहीं, मैं संसारके मार्गसे विवृत्त भया, तुमलो रु यो करी । औला कहकर सुग्रीषको राज्य देय आप गुणन कर गरिष्ठ श्रीगगनचन्द्र मुनिपै परमेसरी दीक्षा आदरो। परमार्थमें लगाया है चित्त जिनने पर पाया है परम उदय जिसने वे वाली योथा परम ऋषिहोग एक चिद्रप भाव में रस भर : सम्यग्दशन है निर्मल जिनके सम्यक ज्ञान कर युक्त है आत्मा जिनका सम्य चारित्रमें तत्पर चारा अनुप्रेक्षाओंका निरन्तर विचार करते भए । आत्मानुभवमें मग्न मोह जालरहिन स्वगुणरूपी भूमिपर बिहार करते भए बह गुण भूमि निर्मल आचारीले मुनि तिनकर सेवनोक है । बाली मु न पिताकी नाई सर्व जीवोंपर दयालु बाह्याभ्य तर तपसे कर्मकी निर्जरा करते भए । वे शांतबुद्धि तपोनिधि महाऋद्धिके निवास होते भए सुन्दर है दर्शन जिनका, ऊचे २ गुणस्थानरूपी जे पिवाण तिनके चहने में उद्यमी भए । भेटी है अंतरंग मिथ्या मावरूपी ग्रंथि ( गांठ) जिनने, वाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहित जेन सूत्रके द्वारा कृत्य अकृत्य सप बानते भए । महागुणवान महासंवरर मंडित कर्मोंके समुटको खिपावते भए, प्राणोंकी रचामात्र सूत्रप्रमाण आहार लेय हैं अर प्राणों को धर्मके निमिन धारै हैं अर धर्मको मोक्षके अर्थ उपारजे हैं, भव्य लोकोंको आनन्दके कर नहारे उत्तम हैं अाचरण जिनकं असे बाली मुनि और मुनियों को उपमा योग्य होते भये अर सुग्रीव रावणको अपनी बहिन परणायकर रावणकी मात्रा प्रमाण किहकन्धपुरका राज्य करता भया । पृथ्वीविष जो जो विद्याधरोंकी कन्या रूपवती थी रावणाने वे समस्त अपने पराक्रमसे परणी । नित्यालोक नगरमें राजा नित्यालोक राणी श्रीदेवी विनकी रत्नावली नामा पुत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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