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________________ जाठवां पर्व स्फटिक मणिके महल हैं। जिनमें इन्द्र नीलमणियोंकी जोली शोभे हैं पर कहूं इक पद्मराग मणियोंके अरुण महिल हैं, इत्यादि अनेक मणियोंके मन्दिरोंसे लंका स्वर्गपुरी समान है। नगरी तो सदा ही रमणीक है परन्तु धनीके आने से अधिक बनी है रावणने अतिहर्षसे लंकामें प्रवेश किया। कैसा रावण १ जाकों काहूकी शंका नहीं, पहाड़ समान हाथी निनकी अधिक शोभा बनी है अर मन्दिर समान रत्नमई रथ बहुत समारे गए हैं, अश्वोंके समूह हींसते चलायमान चमर समान हैं पूछ जिनकी अर विमान अनेक प्रभाको धरें इत्यादि महा विभूति से रावण अया। चन्द्रमाके समान उज्वल मिरपर छत्र फिरते अनेक ध्वजा पताका फहराती बंदीजनके समूह विरद बखानते महामंगल शब्द होते बीण बांसुरी शंख इत्यादि अनेक वादित्र वाजते दशदिशा अर आकाश शब्दायमान हो रहा है इस विधि लंकामें पधारे । तब लंकाके लोग अपने स्वामीका आगमन देख दर्शनके लालसी हाथमें अर्थ लीए पत्र फल पुष्प रत्न लीए अनेक गुन्दर वस्त्र आभूषण पहरे राग रंग सहित रावणके समीप पाए, वृद्धोधो आगे कर तिनके पीछे जाय नमस्कार कर कहते भए 'हे नाथ ! लंक के लोग अजितनाथके समयय आपके शुभ चिन्तक हैं सो स्वामीको अति प्रबल देख अति प्रसन्न भए हैं भांति भांतिकी प्रासीस दीनी तब रावणने बहुत दिलासा देकर सीख दीनी तब रावणके गुण गावते अपने २ घर को गये ॥ __ अथानन्तर रावणके महलमें कौतुझयुक्त नगरकी नानारी अनेक आभूषण पहिरै रावण के देखने की इच्छासे सर्व घरके कार्य छोड़ २ पृथ्वीनाथके देखनेको आई । रावण वैश्रवणके जीतनेहारे तथा यम विद्य-धरके जीतनहारे अपने महल में राजलोकसहित सुखमों तिष्ठे, कैगा है महल ? चूड़ामणि समान मनोहर है और भी विद्याधरोंके अधिपति यथायोग्य स्थानकविर्ष आनन्दसे तिष्ठे देवन समान हैं चरित्र जिनके। अथानन्तर गोतम स्वामी राजा श्रेणिक कहै हैं-श्रेणिक ! जो उज्ज्वल कर्मके करण हारे हैं तिनका निर्मल यश पृथ्वीविष होय है, नाना प्रकारके रत्नादिक सम्पदाका समागम होय है अर प्रबल शत्रुओंका निर्मूल होय है । सकल त्रैलोकवि गुगा बिस्तरै हैं, या जीवके प्रचण्ड बैरी पांच इंद्रियोंके विषय हैं, जो जीवकी बुद्धि हरें है, अर पापोका बन्ध करें हैं। यह इंद्रियोंके विषय धर्मके प्रसादसे वशीभूत होय हैं अर राजाओं के बाहिरले बैरी प्रजाके बाधक ते भी आय पावोंविषे पड़े हैं ऐसा मानकर जो धर्मके विरोधी विषवरूप वैरी हैं वे यिमियोंको वश करने योग्य हैं। तिनका सेवन सर्वथा न करना । जैस सूर्यकी किरणोंसे उद्यंत होते हुवे भली दृष्टिवाले पुरुष अन्धकारसे न्याप्त ओंडे खड़ेविषे नहीं पड़े है तैसे जे भावान. म.र्गविष प्रव” हैं तिनके पापबुद्धि की प्रवृत्ति नहीं होय है। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वनिफाविषै दशग्रीव का निरूपण करनेवाला आठवां पर्व पूर्ण भया॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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