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26 Mahapuraanam Then, at midday, the sun shone brightly, its rays intense. Like a conquering king, it was full of power, its disc pure. ||86|| Birds sought shelter in the shade of trees by the lakes, their feathers ruffled by the scorching sun. ||90|| Swans, gathered in groups, covered their young with their wings, shielding them from the harsh heat. ||91|| Wild elephants, their temples adorned with the red of sindoor, went to the lakes to bathe, their bodies burning from the heat. ||88, 92|| The elephants, scorched by the sun's rays, broke off branches and used them as shade, as if they were rescuing the branches themselves. ||93|| A herd of wild boars entered the muddy pools, piling on top of each other and sleeping. ||94|| Swans, their bodies wrapped in reeds, shone brightly, as if they had entered a cage made of moonlight for protection. ||95|| A young chakravaka, unable to bear the heat, wore a thick, wide seaweed as a garment, making it look like a blue tunic. ||96|| The king of swans, shaded by a white lotus-shaped umbrella in the forest of lotuses, dived into the water with his swans. ||97|| The young swans, fed on pieces of reeds and covered in reed fibers, slept on beds of lotus leaves. ||98|| Thus, in the autumn, the sun's heat was intense, and the birds could not bear it. They sought refuge in the cool pools. ||89, 99||
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________________ २६ महापुराणम् ततो 'मध्यन्दिनेऽभ्यर्णे दिदीपे तीव्रमंशुमान् । विजिगीषुरिवारूढप्रतापः शुद्ध मण्डलः ॥८६॥ 'सरस्तीरतरुच्छायाम् श्राश्रयन्ति स्म पत्रिणः अरदातपसन्तापात् सकुचत्पत्र' सम्पदः ॥ ६०॥ हंसाः कलमषण्डेषु पुञ्जीभूतान् स्वशावकान् । पक्षैराच्छादयामासुः प्रसोढजरठातपान् ॥ ६१ ॥ वन्याः स्तम्बेरमा भेजुः सरसीरवगाहितुम् । मदस्रुतिषु तप्तासु मुक्ता मधुकरव्रजः ॥ ६२॥ शाखाभङर्गः कृतच्छायाः प्रयान्तो गजयूथपाः । ' शाखोद्धारमिवातन्वन् खरांशोः करपीडिताः ॥६३॥ यूथं वनवराहाणाम् उपर्युपरि पुञ्जितम् । तदा प्रविश्य 'वेशन्तम् प्रधिशिश्ये सकर्दमम् ॥ ६४ ॥ मृणालैरङगमावेष्टय स्थिता हंसा विरेजिरे । प्रविष्टाः शरणायेव शशाङ्ककरपञ्जरम् ॥६५॥ चक्रवाकयुवा भेजे घनं शैवलमाततम् । सर्वाङगलग्नमुष्णालुः विनीलमिव कञ्चुकम् ॥६६॥ पुण्डरीकातपत्रेण कृतच्छायोऽब्जिनीवने । राजहंसस्तदा भेजे हंसीभिः सह मज्जनम् ॥६७॥ विभङ्गैः कृताहारा मृणालैरवगुण्ठिता:' । विसिनोपत्रतल्पेषु शिश्यिरे हंसशावकाः ॥६८॥ इति शारदिके तीव्रं तन्वाने तापमातपे । पुलिनेषु प्रतप्तेषु न हंसा धृतिमादधुः ॥६६॥ हाथियोंके गण्डस्थलोंमें लग कर सिन्दूरकी शोभा धारण कर रही थी ॥८८॥ तदनन्तर मध्याह्न का समय निकट आनेपर सूर्य अत्यन्त देदीप्यमान होने लगा । उस समय वह सूर्य किसी विजिगीषु राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार विजिगीषु राजा प्रताप ( प्रभाव ) धारण करता है उसी प्रकार सूर्य भी प्रताप ( प्रकृष्ट गर्मी ) धारण कर रहा था और जिस प्रकार विजिगीषु राजाका मण्डल (स्वदेश) शुद्ध अर्थात् आन्तरिक उपद्रवोंसे रहित होता है उसी प्रकार सूर्यका मण्डल (बिम्ब) भी मेघ आदिका आवरण न होनेसे अत्यन्त शुद्ध ( निर्मल) था ।।८९।। शरद् ऋतुके घामके संतापसे जिनके पंखोंकी शोभा संकुचित हो गई है ऐसे पक्षी सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंकी छायाका आश्रय लेने लगे ॥९०॥ जो मध्याह्नकी गर्मी सहन करने में असमर्थ हैं और इसीलिये जो कमलोंके समूहमें आकर इकट्ठे हुए हैं ऐसे अपने बच्चोंको हंस पक्षी अपने पंखोंसे ढँकने लगे || ११ || मदका प्रवाह गर्म हो जानेसे जिन्हें भ्रमरोंके समूह ने छोड़ दिया है ऐसे जंगली हाथी अवगाहन करनेके लिये सरोवरोंकी ओर जाने लगे ॥ ९२ ॥ सूर्य की किरणोंसे पीड़ित हुए हाथी वृक्षोंकी डालियां तोड़ तोड़कर अपने ऊपर छाया करते हुए जा रहे थे और उनसे ऐसे मालूम होते थे मानो शाखाओं का उद्धार ही कर रहे हों ॥९३॥ उस समय जंगली शूकरोंका समूह कीचड़ सहित छोटे छोटे तालाबोंमें प्रवेश कर परस्पर एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे हो शयन कर रहे थे ।। ९४ ।। अपने शरीरको मृणालके तन्तुओंसे लपेटकर बैठे हुए हंस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अपनी रक्षा करनेके लिये चन्द्रमाकी किरणोंसे बने हुए पिंजड़े में ही घुस गये हों ।। ९५ ।। जो उष्णता सहन करने में असमर्थ है ऐसे किसी तरुण चकवाने अपने सर्व शरीरमें लगे हुए, मोटे मोटे तथा विस्तृत शैवालको धारण कर रक्खा था और उससे वह ऐसा मालूम होता था मानो नीले रंगका कुरता ही धारण कर रहा हो ॥९६॥ जिसने कमलिनियों के वनमें सफेद कमलरूप छत्रसे छाया बना ली है ऐसा राजहंस उस मध्याह्न के समय अपनी हंसियों के साथ जलमें गोते लगा रहा था ।। ९७ ।। जिन्होंने मृणालके टुकड़ोंका आहार किया है और मृणालके तन्तुओंसे ही जिनका शरीर ढका हुआ है ऐसे हंसों के बच्चे कमलिनी के पत्ररूपी शय्या पर सो रहे थे ।। ९८ ।। इस प्रकार शरद् ऋतुका घाम तीव्र संताप फैला रहा १ मध्याह्नकाले । २ पक्षिणः ल० । ३ पक्ष । ४ शाखाखण्डैः । ५ पल्लवानि गृहीत्वा आक्रोशम् । ६ पल्वलम् । अल्पसर इत्यर्थः । “वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इत्यभिधानात् । ७ उष्णमसहमानः । 'शीतोष्णत्रयादशः आलुः' । ८ आच्छादिता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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