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________________ १०. ३. १२] हिन्दी अनुवाद २२१ श्रेष्ठ सिंहासनकी पीठपर विराजमान, कर्मबन्धनका नाश करनेवाले जिन ऐसे शोभित हैं जैसे उत्तम उदयाचलके शिखरके ऊपर चन्द्रमा हो । जन्मके साथ उनके दस अतिशय हुए थे ज्ञानके उत्पन्न होनेसे चौबीस और अतिशय उत्पन्न हो गये। जगमें जो केवल अरहन्तोंके होते हैं, उन्हें ( अतिशयोंको) गणधर इस प्रकार कहते हैं-'जहाँ तक चार सौ कोश होते हैं, वहाँ तक सुभिक्ष और सुक्षेत्र रहता है। किसी भी प्राणीका प्राणनाश नहीं होता। परमेश्वरका आकाशमें गमन होता है, न उनमें भुक्तिकी प्रवृत्ति होती है, और न उनपर उपसर्ग होता है; उनकी सरल आँखोंके पलक नहीं झपते । उनका शरीर छायासे रहित है, उनके पास समस्त विद्याओंका ऐश्वर्य होता है, उनकी अंगुलियां सीमित रहती हैं। वाल नीले, प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव, दुष्टोंके प्रति द्वेषभाव नहीं । समस्त शरीरसे निकलती हुई सुन्दर भाषा, जो नाना भापाओंमें परिणत हो जाती है, उसी प्रकार, जिस प्रकार जलकी धारा परिणमनके वशसे नाना वृक्षोंके द्वारा मीठी, कड़वी और तीखी हो जाती है । छहों ऋतुओंमें समृद्ध करनेवाले वृक्ष फलोंके भारसे धरतीपर झुक जाते हैं। धरती दर्पणके समान दिखाई देती है। परम आनन्दसे लोग जगमें नहीं समाते। मन्थर शीतल वृक्षोंको सुगन्धका जिसमें सार है ऐसी हवा एक योजन तक बहती है, स्वामीके पीछे जातो हुई ऐसी शोभित होती है, मानो स्नेहसे उनके पीछे लग गयी हो। पत्ता-नदियां जलरूपी दूध प्रवाहित करती हैं। जहां-जहां स्वामी विहार करते हैं, वहाँ-वहां की तृण, काँटे, कीड़े और पत्थर तथा धूल नष्ट हो जाती है ।।२।। इन्द्रके आदेशसे स्तनितकुमार मेघ, परिमलसे मिले हुए भ्रमरकूलोंसे सम्मानित उत्तम गन्धवाला जल बरसाते हैं ।।१॥ प्रभुके आगे-पीछे शोभित होते हुए सात-सात कमल चलते हैं। वह जहाँ पैर रखते हैं वहां देवोंके द्वारा संयोजित विमल स्वर्णकमल चलता है। भुवनमें इतनी बड़ी प्रभुता किसकी कि जिसके घरमें वज्र धारण करनेवाला इन्द्र दास है। धरती अट्ठारह श्रेष्ठ धान्योंको धारण करती है, मानो रोमांचित होकर नाच रही हो। मल विहीन आकाश भी दिशाओं सहित इस प्रकार शोभित है जैसे पानीसे धोया गया नीलम और माणिक्योंका पात्र हो। पवित्र दिव्यध्वनि प्रवर्तित होती है, जो आठ हजार धनुष बराबर मानवाले क्षेत्रमें प्रसारित होती है। यक्षेन्द्रके सिरपर स्थित विचित्र रत्नोंकी आराओंसे लाल, सूर्यके बिम्बके समान, तथा लीलासे भव्य जन-समूहको सम्बोधित करनेवाला धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलता है। जो दूरसे भी मानस्तम्भको देख लेता है उसके मानकषायका दम्भ नष्ट हो जाता है। जिसमें अनेक मतोंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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