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________________ २७ २.५.४] हिन्दी अनुवाद जय हो। जड़ोंका दमन करनेवाले, मनको भ्रमित करनेवाले, सघन अन्धकारके लिए सूर्य, हे सुमुख और सम दृष्टि रखनेवाले आपकी जय हो। हे सुमन! आपकी जय, जिनके लिए आकाशसे सुमनोंकी वर्षा की जाती है ऐसे हे आकाशगामी, आपको जय हो। जिनपर चमर ढोरे जाते हैं, ऐसे आपकी जय । हे सुन्दर कल्पवृक्ष, आपकी जय । हे गम्भीर मधुर ध्वनि, आपकी जय । हे अन्तिम तीर्थंकर आपकी जय । हे विषयरूपी सर्पके लिए गरुड़, विश्वके लिए मंगलस्वरूप यशसे धवल आपकी जय हो । जिनके यशके नगाड़े बज रहे हैं ऐसे हे अनिन्द्य अहंन्त आपकी जय हो। पत्ता-सिंहासन और छत्रोंसे अलंकृत तथा मदरूपी मृगोंके लिए सिंहके समान आपकी जय हो। चार गतियोंसे उद्धार कर, आप मुझे पांचवीं गति (मोक्ष) में ले जायें ॥३॥ राष्ट्रका पालन करनेवाला राजा श्रेणिक, इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना कर, . ग्यारहवें कोठेमें जाकर बैठ गया। उत्पन्न होते हुए विश्वभारके भयसे डरकर वह भक्तिके भारसे विनत शरीर हो गया। राजाने पूछा-"संयमको धारण करनेवाले आदरणीय गौतम, बताइए कि शक तथा चार पुरुषार्थोसे परिपणं महापुराण किस प्रकार अवतरित हआ।" यह सुनकर गौतम गणधरने इस प्रकार घोषणा की कि जैसे पावस ऋतु आनेपर मेघ गरज उठे हों। उन्होंने कहा-'हे श्रेणिक, सुनो। मद और मोहसे रहित अरहन्तोंकी समाप्त हो रही परम्पराका , न आदि है, और न होनेवाली परम्पराका अन्त है। वीर भगवान्ने निश्चयरूपसे यह कहा है। सबसे पहले संक्षेपमें बताता हूँ कि काल अनादि और अनन्त है जिसे जिनभगवान्ने अपने केवलज्ञानसे देखा है। इस विश्वके परिणमनमें वही सहायक है, वह अरस, अगन्ध, अरूप एवं भारहीन है । संसारके प्रवर्तनके कारणस्वरूप इस निश्चयकालको, सम्यक्त्वसे विलक्षण कोई विरला मनुष्य ही जान सकता है। पत्ता-मुनियोंके चरणकमलोंके भ्रमर हे राजन् ! मैं किसी भी तत्त्वको छिपा नहीं रखूगा। परमेष्ठी भगवान्के मुखसे जिस रूपमें व्यवहार कालको मैंने सुना है वह, मैं वैसा ही तुम्हें बताता हूँ॥४॥ एक अणु जितने समयमें आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जाता है, उसे समय कहते हैं, असंख्य समयोंकी एक आवली कही जाती है। संख्यात आवलियोंसे एक उच्छ्वास बनता है। सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक समझना चाहिए। सात स्तोकोंका एक लव कहा जाता है-ऐसा प्रियकारिणी त्रिशलाके पुत्र महावीरने समझा है। महामुनियोंके चित्तमें आनेवाली नाड़ीमें साढ़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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