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________________ ३७ द्वितीयं पर्व यत्खातिका महानीलसरोजश्रेणिलोचनैः । ईक्षते गृहसंचारिशोभा नेत्रविकाशिकाम् ।।१९९ पण्यवीथीकृतोत्तुङ्गरत्नराशावितस्ततः । पर्यटन्यत्र संप्राप्त्यै प्रचुरं च परीषणम् ॥२०० दधद्धीरो जनो वैश्यो रेजे दीधितिमण्डितः । मेराविव सुनक्षत्रगणो गुणविभूषितः ॥२०१ जिनचैत्यमहापूजां नित्याष्टाह्निकसंज्ञिकाम् । कुर्वते शर्मणे यत्र लोका मङ्गलसिद्धये ॥२०२ दीपा यत्र प्रजायन्ते मङ्गलाथं गृहे निशि । योषिन्मुखमहाचन्द्रप्रकाशे ध्वान्तनाशिनि ॥२०३ यत्रापणौ सुताम्बूलपङ्के मना जना अपि । मदोद्धता न गन्तुं वै शक्नुवन्ति क्षणं स्थिताः।।२०४ योषिञ्चरणसंलममृगनाभिसुगन्धतः । आगताः षट्पदा यत्र पूत्कुर्वन्तीति वादिनः ॥२०५ भोः कामिनः शुभं सारं वधूचरणपङ्कजम् । वयं यथा तथा यूयं सेवध्वं च सुखाप्तये ॥२०६ पापसे उत्पन्न हुए शोकका कभी अनुभव नहीं करते थे । यहांके शुभचरित लोग दानादि कार्योंसे पापका नाश करते थे ॥ १९७-९८ ॥ इस नगरीकी खातिका अतिशय नील कमलोंकी पंक्तिरूप नेत्रोंद्वारा मानो नेत्रोंको विकसित [ आनंदित ] करनेवाली घरोंकी शोभा देख रही है ॥ १९९ ।। वहां जौहरीबाजारकी दुकानों में रत्नोंकी उंची राशि विद्यमान थी । उन रत्नोंकी प्राप्ति के लिये विपुल द्रव्य लेकर यहां वहां भ्रमण करनेवाले गुणविभूषित तेजस्वी व्यापारी लोग मेरुपर्वतपर भ्रमण करनेवाले उत्तम नक्षत्रसमूहके समान शोभायमान होते थे॥२००-२०१॥ जहांपर धार्मिक लोग सुख और कल्याणके हेतु जिनप्रतिमाओंकी नित्यपूजा और अष्टाह्निक पूजा नामकी महापूजा करते थे ।।२०२॥ इस नगरमें स्त्रियोंके मुखरूपी महाचन्द्रके प्रकाशसे अंधकार नष्ट हो जानेसे रात्रीमें गृहोंमें दीपक केवल मंगलके लिये होते थे । २०३ ॥ इस नगरीके बाजारमें तांबूलकी पीकसे जो कीचड होता था उसमें फसे हुए लोग मदोद्भत होनेपर भी उसमें से आगे नहीं जा सकते थे । क्षणपर्यन्त उनको वहां रुकना पडता था ॥ २०४ ॥ इस नगरमें स्त्रियोंके चरणोंमें चर्चित कस्तुरीकी सुगंधसे आगत भ्रमर गुंजारव करते हुए कह रहे है कि “ हे कामिजन, स्त्रियोंके चरणकमल शुभ और उत्तम हैं, उनकी हम जैसी सेवा करते हैं वैसी तुम भी सुखकी प्राप्तिके लिये सेवा करो ॥ २०५-२०६॥ [सोमराजा, श्रेयान् राजा तथा सोमराजाकी रानी लक्ष्मीमती और पुत्र जयकुमार इनका वर्णन । ] इस हस्तिनापुरमें श्रीवृषभेश्वरने कुरुवंशके भूषण तथा श्रेष्ठ, सोम और श्रेयानको कुरुजाङ्गल देशके अधिपति बनाये । श्रीसोमराजाकी प्राणोंसेभी प्यारी चन्द्रके समान मुखवाली, उज्ज्वल शोभाको धारण करनेवाली लक्ष्मीमती नामकी पतिव्रता धर्मपत्नी थी। वह लक्ष्मीमती निर्दोष शब्दरचनायुक्त, उपमादि अलंकारोंसे भूषित, गूढार्थको धारण करनेवाली, कान्ति, समाधि, १प परीक्षणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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