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________________ ३४ पाण्डवपुराणम् शालयः पक्वसंवेद्याः स्वकालस्थायिनो वराः । फलप्रदा विराजन्ते यत्र कर्मोदया इव ॥ १७२ जञ्जन्यन्ते जना यत्र नाकात्पाका द्वषस्य वै । त्यागिनस्त्यक्तदुष्टत्वमात्सर्यामर्षभावकाः || १७३ दन्ध्वन्यन्ते वने वृक्षाः सफलाः फलदायिनः । ददत्यध्वजनानां ये फलानि फलकाङ्क्षिणाम् ॥ १७४ नराः सुरसमाकारा वृक्षाः फलभरोन्नताः । कल्पानो कहसादृश्या यत्र भान्ति शुभालयाः ॥ १७५ लावण्येन सुरूपेण कलया ध्वनिना पुनः । यत्रत्यास्तर्जयन्त्येव योषितः सुरयोषितः ॥ १७६ नगरोपान्त्यदेशेषु कृता धान्यसुराशयः । भान्तीव यत्र गिरयः सूरविश्रामहेतवे ।। १७७ रम्यारामप्रदेशेषु द्रोणे पर्वतमस्तके । पत्तने नगरे यत्र भान्ति प्रासादपङ्क्तयः ॥ १७८ गम्भीराणि मनोज्ञानि सरसान्यत्र भान्ति वै । तृष्णान्नानि सपद्मानि चेतांसीव सरांसि च।। १७९ सपद्मा मदनोद्दीप्तास्तिलकाढ्याः फलावहाः । सपुष्पा यत्र राजन्ते रामा आरामका इव ।। १८० क्षेत्रेषु व्रीहयो यत्र फलभारेण सन्नताः । कुर्वाणाः पथिकानां वा प्राघूण्यीय नतिं बभ्रुः ॥ १८१ कर्मोदय पक्कसंवेद्य-उदयावलिमें आनेपर जीवोंके द्वारा भोगे जाते हैं। जबतक आत्मामें उनके रहनेकी कालमर्यादा होती है तबतक वे रहते हैं, तथा अपना फल देते हैं । शालिधान्य भी पकनेपर लोगोंको फल देते हैं, लोग उनका अनुभव करते हैं । तथा वे शालिधान्य अपनी कालमर्यादापर्यंत स्थिर रहते हैं ॥ १७२ ॥ स्वर्गसे च्युत हुए जीव पुण्यकर्मके उदयसे यहां सदा जन्म धारण करते हैं । वे त्यागी दानशील होते हैं और दुष्टपना, मत्सरभाव, तथा क्रोध इनके त्यागी हैं । अर्थात् क्षमा, मार्दव, आर्जव इत्यादि गुणोंके धारक होते हैं । इस देश के सभी वृक्ष वनमें सफल - फलदायक थे । फलेच्छु पथिक लोगोंकों नित्य फल देनेमें प्रसिद्ध थे ॥ १७३-७४ ॥ यहांके लोग-प्रजाजन देवोंके समान आकारवाले थे । फलभारसे लदे हुए वृक्ष कल्पवृक्षों म दीखते थे । तथा वे शुभकार्य के मंदिर थे ॥ १७५ ॥ यहां स्त्रिया लावण्य, सुरूप, कला और स्वरसे देवांगनाओंको तिरस्कृत करती थीं । इस देशमें नगरोंके समीप संचित की हुई धान्योंकी राशियां सूर्यकी विश्रान्तिके लिये पर्वतके समान शोभती थीं। यहांके सुंदर बगीचोंमें, द्रोणोंमें, पर्वतों के मस्तकपर, पत्तनोंमें तथा नगरोंमें महलोंकी पंक्तियां, अतिशय शोभायमान होती हैं । इस देशके सरोवर सज्जनोंके चित्तके समान गंभीर, सरस, तृष्णा - पिपासा दूर करनेवाले और पद्म-कमलों से सहित शोभते थे ॥ १७६ - ७९ ॥ यहांकी स्त्रियां उपवनके समान शोभती थीं, उपवन सपद्मकमलवनसहित, मदनोद्दीप्त मदननामक वृक्षोंसे सुशोभित, तिलकाढ्य तिलकवृक्षों से परिपूर्ण, फलावह - फलोंको धारण करनेवाले तथा सपुष्प - फूलोंसे युक्त थे । स्त्रियां भी सपद्मा पद्मा-लक्ष्मीसहित, मदनसे उद्दीप्त, तिलक - कुंकुमतिलकोंसे सुन्दर, फलावह - पुत्रवती व सपुष्पा- ऋतुमती १ ग सम्भृताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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