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________________ पाण्डवपुराणम् ननाट नाटकैर्नाट्यं नटीनटशतोत्कटः । विकटं सुघटं शक्रः शचीभिः सहितः सुखी ॥१२९ निवेद्य रक्षणे रक्षान्समक्षं जिनपस्य वै । शतयज्वा ययौ नाकं गृहीत्वाज्ञां नरेशिनः ॥१३० ववृधे वृद्धिसंपन्नः समृद्धो बोधनत्रयैः । विबुधैः सेव्यपादोऽसौ कुमारत्वं समासदत् ।।१३१ क्रमेण यौवनोदासी भासिताखिलदिक्चयः । वृषभो वृषभो भाति भूरिभव्यपरिष्कृतः ॥१३२ इन्द्रेण नाभिभूपेन यशस्वत्या सुनन्दया । जिनेशः कारयामास सबुधः पाणिपीडनम् ॥१३३ कल्पवृक्षक्षये क्षीणास्तावता सकलाः प्रजाः। अभ्येत्य नाभिभूपालं पूत्कुर्वन्ति स्म सस्मयाः।।१३४ राजन् राजन्वती कुर्वन्वसुधां वसुधातले । क्षीणाःक्षुधा समाक्रान्ता वयं भोज्यं विना प्रभो१३५ कल्पवृक्षाः क्षयं क्षिप्रं संयाता जनकोपमाः। इदानीं तदभावे हि किं विधास्याम उत्सुकाः।१३६ निशम्य मतिमान्वाचं कृपणां कृपणात्मनां । नाभिः संप्रेषयामास नाभिजं तान्सुशिक्षितान्॥१३७ अभ्येत्य नाभिजं भक्त्या विज्ञप्तिं युक्तिसंगताम् । चक्रुः क्षुधाभराक्रान्ता नम्रा नम्रमुखा नराः१३८ देव देवेशसंस्तुत्य त्वद्गर्भोत्सवसंक्षणे । क्षणेन त्रिदशैः क्लप्ता हेमवृष्टिः सुवृष्टिवत् ।। १३९ भावोंसहित नृत्य किया ॥ २८-२९ ॥ नाभिराजाके समक्ष जिनेश्वरके रक्षण करनेमें प्रवीण देवोंको आज्ञा देकर और नाभिराजाकी अनुज्ञा प्राप्तकर इंद्र सौधर्मस्वर्गको चला गया ॥ ३० ॥ मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानोंसे पूर्ण वृद्धिसंपन्न जिनेश्वर बढने लगे। देव जिनके चरणोंकी सेवा करते थे ऐसे वे प्रभु कुमारावस्थाको प्राप्त हुए । क्रमसे प्राप्त हुए यौवनसे प्रभु शोभने लगे । उनकी देहकी कान्तिसे सर्व दिशाएं प्रकाशित हुई। अनेक भव्यजीवोंसे अलंकृत भगवान् वृषभनाथ वृषसे ( धर्मसे ) शोभने लगे ॥ ३१-३२ ॥ [ आदिप्रभुका विवाह और प्रजापालन ।। इन्द्रने और महाराज नाभिराजाने ज्ञानवान जिनेश्वरका यशस्वती और सुनन्दाके साथ विवाह किया ॥ ३३ ॥ किसी समय कल्पवृक्षोंका नाश होनेसे आश्चर्यचकित और क्षीण हुई सर्व प्रजा नाभिराजाके पास आकर अपना दुःख कहने लगी, पृथ्वीको सुखी करनेवाले हे राजन्, इस भूतलपर हम भूखसे पीडित होकर क्षीण हो गये हैं । हे प्रभो, आहारके बिना हमारा जीवन कैसे टिकेगा ? पिताके समान हितकर कल्पवृक्ष शीघ्र नष्ट हो गये । उनके अभावसे जीवनोपाय जानने के लिये उत्सुक हम लोग अब क्या करें ? ३४-३६ ॥ उन दीन लोगोंका आस्विर सुनकर बुद्धिमान् नाभिराजने उनको उपदेश दिया और आदिनाथ भगवान्के पास भेज दिया। क्षुधाकी वेदनासे पीडित वे लोग प्रभुके पास गए और मस्तक झुकाकर नम्रताके साथ भक्तिपूर्वक इस प्रकार युक्तिसङ्गत निवेदन करने लगे ॥३७-३८॥ देवेन्द्रद्वारा स्तुत्य हे देव, आपके गर्भोत्सवके समय देवोंने जलवृष्टिके समान सुवर्णवृष्टि की थी । हे विद्वन्, उसके द्वारा लोगोंका दारिद्रय नष्ट होकर कहां चला गया उसे हम नहीं जानते। किंतु नाथ, अब हमारी यह भूखकी पीडा भी जिससे दूर हो जाय वह उपाय बताइये । हे देव, ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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