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________________ पाण्डवपुराणम् श्राद्धश्रेयः श्रुतं शीलतपोदानसुभावनैः । नाकं साकं सुखैर्दत्ते चतुर्धा सुधृतं ध्रुवम् ॥१२३ शीलं च सत्वभावोत्र शीलं च व्रतरक्षणम् । ब्रह्मचर्यात्मकं शीलं शीलं सद्गुणपालनम्।।१२४ तपस्तपनमेवात्र देहस्येन्द्रियदर्पिणः । इन्द्रियार्थनिवृत्तेस्तत्वोढा बाह्यं तथान्तरम् ॥ १२५ ।। दानं दत्तित्रिधा पात्रे स्वस्य शुद्धथा चतुर्विधम् । भोगभूमिफलाधारं तदाहारादिमेदगम्।।१२६ भावनं जिनधर्मस्य चिद्रपस्य निजात्मनः । स्वहृदः शुद्धता चाथ भावना साभिधीयते ॥१२७ इति धर्मस्य सर्वस्वं श्रुत्वा भूपो जिनोदितम् । द्रङ्ग जिगमिपुर्द्राक् स ननाम जिनपुङ्गवम्।।१२८ पुरं नृपो जगामाशु सेवितो नरनायकैः । सुरेशैः सेवितः स्वामी वीरश्च परनीवृतम् ॥१२९ रेमे भूपः सुचेलिन्या चलच्चारुसुचेतसा । जिनश्चेतनया चित्ते चिन्त्यमानस्वभावया ॥१३० ददौ दानं स निःस्वेभ्यः सातसिद्धयर्थमञ्जसा। वीरोऽपि ध्वनिना धौव्यं वृषं सत्सातसिद्धये ॥१३१ वर्धमानोऽथ सद्देशे कोशले कुरुजाङ्गले । अङ्गे वङ्गे कलिङ्गे च काश्मीरे कौङ्कणे तथा ॥१३२ महाराष्ट्रे च सौराष्ट्रे मेदपाटे सुभोटके। मालवे मालवे देशे कर्णाटे कर्णकोशले ॥१३३ पराभीरे सुगम्भीरे विराटे विजहार च। बोधयन्बुधसद्राशिं जिनः सद्धर्मदेशनैः॥१३४ चार प्रकारका हैं। इन के पालने से जीवको सुखोंके साथ स्वर्गप्राप्ति होती है । उत्तम दयादिस्वभावको शील कहते हैं। व्रत का रक्षण शील है, ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करना शील है, सद्गुणोंका पालन भी शील ही है। इन्द्रियोंसे उन्मत्त हुए शरीरको संतप्त करना तप कहा गया है, अर्थात् इंद्रियोंको अपने विषयोंसे हटाना तप है। इसके बाह्यतप तथा अभ्यन्तरतप ऐसे दो भेद हैं, तथा दोनोंके भी छह छह प्रकार होते हैं। उत्तमपात्र, मध्यमपात्र और जघन्यपात्रा इन तीनों सुपात्रोंको ( उनको रत्नत्रयवृद्धिके लिये तथा अपनेको पुण्यप्राप्तिके लिये ) नवधा भक्तिपूर्वक आहारादिक देना इसे दान वा दत्ति कहते हैं। इस दानके आहारदान, अभयदान, औषधदान और शास्त्रदान ये चार भेद हैं। इनसे भोगभूमिके सुखोंकी प्राप्ति होती है ॥१२३-२६॥ जिनधर्मका मनन, अपने आत्माके चैतन्य शुद्धस्वरूपका चिन्तन या अपने हृदयकी निर्मलताको भावना कहते हैं। इस प्रकार जिनेन्द्रकथित धर्मका स्वरूप सुन अपने नगरको जानेकी इच्छासे श्रेणिकने जिनश्रेष्ठ वीरनाथको नमस्कार किया ॥१२७२८॥ राजाओंसे सेवित श्रेणिक महाराजने पुरमें प्रवेश किया और देवसेवित वीर जिनेश्वरने अन्य देशोंमें विहार किया। श्रेणिक महाराज चंचल और सुंदर चित्तवाली चेलनाके साथ रममाण होने लगे और श्रीवीर जिन मनमें वारंवार चिंतन किये जानेवाले चेतना स्वभावमें रममाण होने लगे। श्रेणिक राजा याचकोंको सुखी करनेके लिये दान देते थे और श्रीवीर भगवान भी भव्योंको सुखकी प्राप्ति के लिये अविनाशी धर्मका उपदेश देते थे ॥१२९-१३१॥ वीर जिनेश्वरने कोशल, कुरुजांगल, अंग, वंग, कलिंग, काश्मीर, कोंकण, महाराष्ट्र, साराष्ट्र, मेदपाट, सुभोट, मालव, कर्णाट, कर्णकोशल, पराभीर, सुगंभीर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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