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________________ पाण्डवपुराणम् घटद्घोटकसंघातैर्महादन्तसुदन्तिभिः । नानाथरथसाथैव नृत्यत्पादातिसद्रजैः ॥१०५ बदद्वादिवनिर्घोषैः संसिद्धर्मागधस्तवैः । श्रेणिकः सत्यसंधानः प्रपेदे जिनसंनिधिम् ॥१०६ दन्तावलात्समुत्तीर्य विवेश जिनसंसदम् । मुक्तचामरछत्रादिचिह्नः श्रेणिकभूपतिः ॥१०७ जिनं मृगारिपीठस्थं छत्रत्रयमहाछदम् । चतुरास्सं महाशस्य विशेष्यं त्रिजगत्पतिम् ॥१०८ नतामरनराधीशमीशानं शंसितव्रतम् । नत्वाभ्यच्ये स्तुति कर्तु प्रारेमे स इलापतिः ॥१०९ स्तुत्यं स्तोतारमात्मानं स्तुतिं स्तुतिफलं पुनः। नृपो ज्ञात्वा समारेभे स्तुति वीरजिनेशिनः॥११० भगवन् देवदेवेश विभो भुवनसत्पते । त्वां स्तोतुं का क्षमो दक्षः शक्तः शक्रसमोऽपि च ॥१११ चिद्रूपं चित्तनिर्मुक्तं विभु चेन्द्रियवर्जितम् । निर्मल निर्मलाकारं गन्धझं गन्धवर्जितम् ॥११२ अरूपं रूपवेत्तारं नीरसं रसवित्स्तुतम् । रसझं ज्ञातसर्वखं त्वां स्तवीमि जगत्पतिम् ॥११३ पर्वतपर आगमन जानकर वहां वन्दनार्थ गये ॥१०३-१०४॥ वेगसे गमन करनेवाले घोडोंके समूह, बडे दांतवाले हाथी, अनेक कार्य साधनेमें समर्थ ऐसे रथ, नृत्य करनेवाले प्यादोंका समूह, बजनेवाले वाद्योंकी ध्वनि तथा उत्तम पद्धतिसे रची गई बन्दिजनोंकी स्तुतिके साथ सत्यशील नरेश श्रेणिक श्रीमहावीर प्रभुके समीप आए । उनने चामर छत्रादि राजचिन्होंको छोड दिया और हाथीपरसे उतरकर जिनभगवानके समवसरणमें प्रवेश किया ॥ १०५-१०७ ॥ वहां जाकर सिंहासनपर विराजमान छत्रत्रयरूप प्रातिहार्यसे सुशोभित, चार मुखोंसे युक्त, अत्यन्त प्रशंसनीय, इतर देवताओंसे विशिष्टता, सम्पन्न अर्थात् परमवीतराग, त्रिलोकके नाथ, देवेन्द्र और राजेन्द्रों द्वारा नमस्कृत, अठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तरगुण धारण करनेवाले प्रभुको पृथ्वीपति श्रेणिकराजाने वन्दन किया। तथा प्रशंसायुक्त व्रतोंके धारक प्रभुकी इस प्रकार स्तुति की ॥ १०८-१०९ ।। स्तुत्य, स्तोता, स्तुति और स्तुतिफल इन चारोंका स्वरूप अर्थात् वीरप्रभु स्तुत्य हैं, मैं स्तुति करनेवाला हूं, प्रभुके गुणवर्णनको स्तुति कहते हैं, तथा पापविनाश और पुण्यलाभ यह स्तुतिका फल है, ऐसा जानकर श्रोणकने वीरजिनेशकी स्तुतिका प्रारंभ किया ॥ ११० ।। हे भगवन् ! आप देवोंके देव जो इन्द्र उन के भी स्वामी हैं । हे विभो ! आप त्रैलोक्यके हितकर्ता पति हैं। हे प्रभो ! विज्ञ तथा इन्द्रके समान सामर्थ्यवान् ऐसा कौनसा पुरुष है, जो आपकी स्तुति करनेमें समर्थ होगा ? ॥ १११ ॥ हे ईश ! आप चिद्रूप अर्थात् केवलदर्शन, केवलज्ञानमय हैं। आप चित्तनिर्मुक्त हैं अर्थात् भावमनसे रहित हैं। (क्षायिक केवलज्ञानकी प्राप्ति होनपर क्षायोपशमिक भावमनका विनाश होता है।) आप ज्ञानसे सर्व जगत् को जानते हैं इसलिये विभु हैं, तथा आप भावेन्द्रियरहित हैं। (केवलज्ञान होनेपर भावमनके समान क्षयोपशमरूप भावेन्द्रियां भी नष्ट होती हैं।) उनके नष्ट होनसे आप निर्मल हुए हैं, तथा आप परमौदारिक शरीरके धारक होनेसे निर्मलाकार हैं । आप गंधको जानते हैं परंतु स्वयं आप गंधरहित हैं (गंधगुण पुद्गलम होता है जीवद्रव्यमें नहीं।) ॥११२॥ हे प्रभो! आप रूपरहित होकर रूपको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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