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________________ प्रथमं पर्व इतिहाससमुद्रेऽस्मिन्मङ्गलं गदितं पुरा । यजिनेन्द्रगुणस्तोत्रं मलक्षालनयोगतः ॥ ३६ यनिमित्तमुपादाय मीयते शास्त्रसंचयः । तन्निमित्तं मतं मान्यैः पापपङ्कनिवारकम् ।। ३७ कारणं कृतिभिः प्रोक्तं भव्यवृन्दं समुध्दृतम् । यथात्र श्रुतिसंधानः श्रेणिकः श्रेयसे श्रुतः ॥ ३८ कर्ता श्रुतौ श्रुतस्तत्र मूलकर्ता जिनेश्वरः । गौतमोऽप्युत्तरः कर्ता कृतिनां संमतो मुदा ॥ ३९ उत्तरोत्तरकर्तारो विष्णुनन्धपराजिताः । गोवर्धनो भद्रबाहुबेहवोऽन्ये तदादयः ।। ४० नाम्ना पुराणमर्थाढ्यं पाण्डवानां सुपण्डितैः । मतं पाण्डुपुराणाख्यं पुरुपौरुषसंगतम् ।।४१ संख्यया चार्थतोऽनन्तं संख्याताक्षरसंख्यया। संख्यातं क्षिप्रमाख्यातं पुराणं पूर्वसूरिभिः ॥४२ पोढा संधा पुराणस्य ज्ञात्वा व्याख्येयमञ्जसा । पञ्चधा तत्पुनः प्रोक्तं द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः।।४३ निरूपणको इतिहास कहते हैं । इस इतिहाससमुद्रके प्रारंभमें अर्थात् इस पाण्डवपुराणकी रचनाके प्रारंभमें मंगल किया गया है। जिनेन्द्रके गुणस्तोत्रको मंगल कहते हैं, क्योंकि वह भव्योंके पापकर्मरूप मलका क्षालन करता है ॥३६॥ जिस निमित्तको लेकर शास्त्रसमूह रचते हैं उसे पूज्य पुरुष निमित्त कहते हैं । अर्थात् ग्रंथकार अपनी और सुननेवालोंकी पापरूपी कीचड को नष्ट करनेके लिये ग्रंथ रचते हैं। यहां पापका विनाश करना इस ग्रंथरचनाका निमित्त है ॥३७॥ विद्वान् लोगोंने भव्यसमूहको ग्रंथरचनेका कारण माना है। जैसे इस पुराणमें शास्त्रश्रवणके संयोगमें श्रेणिक राजा भव्यजीवोंके हितके लिये कारण माना है। अर्थात् भव्यजीवोंको शास्त्रश्रवण करनेका जो प्रसंग प्राप्त हुआ उसमें श्रेणिक कारण है, क्योंकि श्रेणिकने गौतमगणधरसे पाण्डवचरित कहनेके लिये प्रार्थना की और गौतमगणधरने यह चरित्र कहा ॥३८॥ शास्त्रमें कर्ताका वर्णन है। शास्त्रोंके मूलकर्ता वीरजिनेश्वर हैं, और विद्वान् लोगोंने आनंदके साथ गौतमगणधरको उत्तरकर्ता स्वीकार किया है । ॥३९॥ विष्णमुनि, नन्दिमुनि, अपराजितमुनि, गोवर्धनमुनि और भद्रबाहुमुनि, ये पांच रुतकेवली उत्तरोत्तर-कर्ता है। इस प्रकार अन्य विशाख, प्रौष्टिल आदिक अङ्गधारक मुनि भी उत्तरोत्तरकर्ता हैं ॥४०॥ उत्तम विद्वानोंने पाण्डवोंके इस पुराणको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पुरुषार्थोसे परिपूर्ण होनेसे 'पाण्डुपुराण' नाम दिया है। यह पुराण महान् पौरुषसे युक्त है। इस पुराणमें पाण्डवोंके महान् पौरुषका वर्णन है ॥४१॥ इस पाण्डवपुराण अथवा महाभारतको पूर्वाचार्योने भावरूपश्रुताज्ञनसे अर्थरूप अनंत कहा है, तथा अक्षरसंख्यासे संख्यातरूप कहा है ॥ ४२ ॥ इस प्रकार पुराणकी छह प्रकारकी व्याख्या जानकर उसका परमार्थसे व्याख्यान करना चाहिये । अर्थात् पुराणका इन छह व्याख्याओं द्वारा व्याख्यान करना चाहिये । पुनः वह पुराण द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल और भावके भेदसे पांच २स. विख्यातेः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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