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________________ ५०६ पाण्डवपुराणम् धर्मस्तु दशधा प्रोक्तो दुर्लभो योगिगोचरः । त्रयोदशसुवृत्ताख्यः स्याद्धर्मो मुक्तिदायकः ॥ संसाराशर्मतो यस्तु समुद्धत्य शिवे पदे । नरं धत्ते सुधाधाम्नि स धर्मः परमो मतः ॥११९ मोहोद्भतविकल्पेन त्यक्ता वागङ्गचेष्टितैः । शुद्धचिद्रपसद्धिर्गीयते धर्मसंज्ञया ॥१२० धर्मः पुंसो विशुद्धिः स्यात्स मुक्तिपददायकः । शुद्धिं विना न जीवानां हेयोपादेयवेत्तृता ।। खात्मध्यानं परं धर्मः खात्मध्यानं परं तपः। खात्मध्यानं परं ज्ञानं स्वात्मध्यानं परं सुखम् । स्वात्मज्ञानं न लभ्येत स्वात्मरूपं न दृश्यते । अतः सर्व परित्यज्यात्मन्स्वरूपे स्थिरीभव ।। धर्मानुप्रेक्षा। इत्यनुप्रेक्षया तेषामक्षोभ्याभूद्विरक्तता । समर्थे कारणे नूनं सतां शीलं व्यवस्थितम् ॥१२४ अमन्यन्त तृणायैते शरीरादिपरिग्रहान् । पीयूषे हि करस्थेऽहो के भजन्ते विष बुधाः ॥१२५ [धर्मानुप्रेक्षा ] जिनधर्मकी सदा उपासना करना चाहिये। इसके प्रभावसे कुत्ताभी देवता होता है। मनुष्य इस धर्मके सेवनसे सर्व जगतका नाथ अर्थात् जिनेश्वर तीर्थकर होता है। मुनेियोंको विषयभूत-मुनियोंको आचरणयोग्य धर्म क्षम दिरूप है। उसके क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ऐसे दस भेद हैं। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इसको चारित्रधर्म कहते हैं यह मुक्तिका दाता है। संसारदुखःसे छुडाकर जो मनुष्यको उत्तमसुखके स्थानमें--मोक्षमें स्थापन करता है, अमृतधाममें स्थापन करता है वह उत्कृष्ट धर्म माना है। मोहसे उत्पन्न हुए रागद्वेष जिसमें नहीं हैं, तथा वचनव्यापार और शरीर व्यापारभी जिसमें नहीं है ऐसी जो शुद्ध चैतन्यरूप-बुद्धि उसे धर्मसंज्ञासे विद्वान वर्णन करते हैं। आत्माकी जो निर्मलता-परिणामोंकी अत्यंत शुद्धता वह धर्म है और उससे मुक्तिपद प्राप्त होता है। इस शुद्धिके विना जीवोंको हेय क्या है और उपादेय ग्राह्य क्या है ? समझमें नहीं आता है। उत्तम आत्मध्यानही धर्म है। स्वरूपका चिन्तनही उत्तम तप है। स्वरूपमें तत्पर रहना उत्कृष्ट ज्ञान है और आत्मामें एकाग्र चित्त होनाही उत्तम सुख है । यदि अपनी आत्माका ज्ञान नहीं होगा तो अपना स्वरूप नहीं प्राप्त होगा इस लिये अन्य सर्व कार्य छोडकर आत्मस्वरूपमें स्थिर होना चाहिये ॥ ११७-१२३ ॥ [धर्म, भीम, अर्जुनोंको मुक्ति प्राप्ति और नकुल सहदेव मुनिको सर्वार्थसिद्धिलाम ] ऐसी अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनसे उनकी विषयविरक्तता अक्षोभ्य हुई अर्थात् अतिशय दृढ हुई। योग्यही है, कि समर्थ कारण मिलनेपर सज्जनोंका स्वभाव व्यवस्थित होता है अर्थात् दृढ होता है। ये पांच पाण्डव शरीर, इंद्रिय आदि परिग्रहोंको तृणके बराबर तुच्छ मानने लगे। योग्यही है, कि अमृत हाथमें आनेपर कौन चतुर पुरुष विषसेवन करेंगे। मनोयोगका रोध कर शुद्धयोगका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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