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________________ पान्डवपुराणम् भावयन्तो निजात्मानं शुद्धं बुद्धं निरञ्जनम् । एताभिर्भावनाभिस्ते स्थिरं तस्थुः स्थिराशयाः रत्नत्रयमयं ज्योतिरजायत महोज्ज्वलम् । तेषां मोहद्रुमो येन समूलं नाशमाप्नुयात् ॥४७ तिर्यङ्मामरणासुकृतांस्ते विपुलाशयाः । उपसर्गान्सहन्ते स्म शुद्धचिन्मयतां गताः ॥४८ क्षुत्पिपासासुशीतोष्णदंशादींश्च परीपहान् । द्वाविंशति सहन्ते स्म मुनयोऽमलमानसाः ॥४९ अप्रमत्ता महाधीराश्चरन्ति चरणं परम् । ब्रह्मचर्यपराः पूता निर्भयाः कुम्भिनो यथा ।।५० विशुद्धबुद्धिचेतस्काः सुसंयमसमावृताः । क्षीणमोहाः प्रमादना ध्यानध्वस्ताघसंचयाः॥५१ विरहन्तः समासेदुः सौराष्ट्र ते च नीवति । शत्रुजयगिरौ शीघ्र कदाचिध्यानसिद्धये ॥५२ तस्योत्तुङ्गसुशृङ्गेषु तस्थुस्ते ध्यानसिद्धये । कायोत्सर्गविधौ धीराः स्मरन्तः परमं पदम् ॥५३ आतापनादियोगेन तपस्यन्तः परं तपः । घोरोपसर्गसहने समर्थाः सिद्धिसाधकाः ॥५४ अनक्षरं परं शुद्धं चिन्मानं देहदूरगम् । ध्यायन्तस्ते परात्मानं तत्र तस्थुस्तपोधनाः ॥५५. निर्ममत्वपदप्राप्ता निर्मला मानसे सदा । यावत्तिष्ठन्ति योगीन्द्रास्तत्र ते पाण्डुनन्दनाः ॥५६ मिथ्यादृष्टिओंमें माध्यस्थ्यभाव धारण किया था। इन भावनाओंसे अपने मनको उन्होंने स्थिर किया तदनंतर शुद्ध, पूर्ण ज्ञानमय और कर्ममलरहित ऐसे निजात्माका चिन्तन करनेवाले वे पाण्डव मुनि स्वस्वरूपमें स्थिर रहे। ऐसे आत्मचिन्तनसे उनकी रत्नत्रयपूर्ण चैतन्यज्योति अत्यंत निर्मल हुई। जिससे उनका मोहरूपी वृक्ष समूल नष्ट हो गया ॥४४-४७॥ विशाल परिणामशुद्धि धारण करनेवाले शुद्ध चैतन्यमय अवस्थाको प्राप्त हुए वे पशु, मनुष्य, देव और अचेतन पदार्थोसे होनेवाले चार प्रकारके उपसर्ग सहन करने लगे। निर्मल हृदयवाले उन मुनियोंने भूख, प्यास, शीत, उष्ण, दंशमशक आदिक बाईस परीषहोंको सहन किया ॥ ४८-४९ । उनका मन विकथादिक प्रमादोंसे रहित हुआ । वे महाधैर्यवान् थे। उत्कृष्ट चारित्रके धारक और ब्रह्मचर्यमें तत्पर रहनेसे पवित्र थे। जैसे हाथी निर्भय होते हैं, वैसे वे निर्भय थे। उनका मन निर्मल ज्ञानवाला हुआ, वे उत्तम संयमसे युक्त थे । उनका मोह क्षीण हुआ था। उनके प्रमाद नष्ट हुए थे और ध्यानके द्वारा उन्होंने पापोंका नाश किया था ॥ ५०-५१ ॥ . [पाण्डवोंको घोर उपसर्ग । ] विहार करते हुए वे पाण्डव कदाचित् सौराष्ट्र देशमें शत्रुजय पर्वतपर ध्यानसिद्धिके लिये शीघ्र आये। कायोत्सर्गविधिमें धैर्यवान् , उत्तम ऐसे श्रुतज्ञानके पदोंका स्मरण करनेवाले वे मुनिराज ध्यानसिद्धिके लिये शत्रुजयगिरिक अत्युच्च शिखरोंपर खडे होकर आत्मचिन्तन करने लगे। आतपनादि योग धारण कर उत्तम तप करनेवाले, भयंकर उपसर्ग सहन करनेमें समर्थ, सिद्धि के साधक ऐसे वे तपोधन मुनि अविनाशी, अतिशय शुद्ध, चैतन्यमय, देहरहित उत्तम आत्माका-परात्माको चिन्तन करते हुए उस पर्वतपर कायोत्सर्गमें लीन हुए ॥५२-५५॥ हमेशा मनमें निर्मल, निर्ममत्वकी अवस्थाको धारण किये हुए महायोगी वे पाण्डुपुत्र जब वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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