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________________ पाण्डवपुराणम् चम्पापुर्या समाजले मातङ्गी मन्दमानसा । अन्यदोदुम्बराण्यत्तुमासदद्विपिनं च सा ॥११ समाधिगुप्तयोगीन्द्रं दृष्ट्वा तत्र शनैः शनैः। इयाय तस्य साभ्यणेमिच्छन्ती खस्य शं खयम् ॥ १२ न प्साति वक्ति नो किंचित्स्विरं स्थानस्थितोऽप्ययम् ।। किं चिकीर्षति भो एवं भवान्पृष्टे जगौ मुनिः ॥ १३ ... बंप्रम्यते भवे भव्ये भविनो भयसंकुलाः । पापच्यन्ते पुनः पापात्पतिता दुर्गतौ नराः॥ मनुष्यत्वं च दुःप्रापं प्राप्य तत्राधमा नराः । चेक्रीयन्ते न ये धर्म ते जंगमति दुर्गतिम् ।। वर्जयेन्मद्यमांसानि मधुजन्तुफलानि च । वर्जयेद् व्यसनं कर्म यः स धर्मप्रियो मतः ॥१६ रजनीभोजनत्यागोऽनन्तकायविवर्जनम् । अगालितजलत्यागो नानास्थानकहापनम् ॥१७ ।। नवनीतनिवृत्तिश्च छिन्नधान्यनिवर्तनम् । व्यहोषितस्य तस्य निवृत्तिः क्रियतामिति ॥१८ कालतक उसने भ्रमण किया। वहांसे भी निकलकर चम्पापुरीमें मंद मनवाली-अज्ञानी मातंगी हुई । किसी समय वह उदुंबर फलोंको खानेकी इच्छासे वनमें गई। वहां उसने 'समाधिगुप्त नामक मुनीश्वरको देखा और स्वयंको सुखकी प्राप्ति इनसे होगी ऐसा विचारकर वह शनैः शनैः उनके पास गई ॥ ९-१२ ।। " भो मुने, आप एकही स्थानमें स्थिर बैठे हैं, आप कुछ न खाते हैं और न बोलते हैं। आप यहाँ क्या करना चाहते हैं ? " ऐसा प्रश्न मातगीके द्वारा किया जानेपर मुनि बोलने लगे- “हे भव्ये, संसारी प्राणी भयव्याप्त होकर भवमें- संसारमें पुनः पुनः फिरत है। पुनः पापोदयसे जब दुर्गतिमें पड़ते हैं तो वहां बारबार दुःखोंमें पचते हैं। जो अधम मनुष्य, जिसकी प्राप्ति होना कठिन है ऐसा मनुष्यपना प्राप्त करके, धर्माचरण नहीं करते हैं वे दुर्गतिमें बारबार जाते हैं। जो मद्य और मांस छोडता है, जो मधु-शहद और जिनमें त्रसजन्तु उत्पन्न होते हैं ऐसे उदुंबरादिफलोंका त्याग करता है। जो द्यूतादि व्यसन-छोडता है वह धर्मप्रिय मनुष्य है अर्थात् धर्ममें प्रेम करनेवाला पुरुष है " ॥१३-१६॥ रात्रि-भोजनका त्याग, अनंतसूक्ष्मजीव जिनमें उत्पन्न होते हैं ऐसे सूरण, आलु वगैरह कंद-मूलोंका त्याग करना चाहिये । अगालित जलका त्याग-न छना हुआ पानी पीनेका त्याग, नाना स्थानकोंका त्याग-अर्थात् अनेक प्रकारके अचार जिनको संधानक- (संस्कृत भाषामें कहते हैं तथा मराठी भाषामें लोणचें कहते हैं।) मक्खन, जिनको घुन लग गई है ऐसा धान्य, तथा दो दिनका छाछ ये पदार्थ त्यागने चाहिये। पुष्पोंका भक्षण करना छोडना चाहिये, परंतु पंचपुष्पोंको छोडकर अर्थात् भिलावेका फूल, नागकेसरका पुष्प, लवंगका पुष्प इत्यादि पुष्योंका सेवन करना अयोग्य नहीं है, क्या कि इनका शोधन कर सेवन करना अयोग्य नहीं है। पंचोदुम्बर फलोंका त्याग करना चाहिये, क्यों कि इनको फोडनेपर अंदरसे जीव उडते हुए आखोंको दीवते हैं। ऐसी वस्तुओंका-धान्य, फल, पुष्प इत्यादिकोंका भक्षणत्याग For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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