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________________ त्रयोविंशं पर्व पूर्णचन्द्रानना तन्वी रतिरूपा गुणाकरा । निर्दोषा रससंपूर्णा लक्षलक्षणलक्षिता ॥ ५१ कस्ते देव गुणान्वक्तुं समर्थोऽत्र जगत्रये । इति स्तुत्वा स्थिताः सभ्याः सभायां भास्वरा नृपाः व्याजहार जिनो धर्म पाण्डवान् शृणुताधुना । यूयं यत्नेन जीवानां सातसाधनमुद्धरम् ॥ ५३ धर्मो जीवदया भूपैकभेदो विशदात्मकः । सा षड्जीवनिकायानां रक्षणं परमा मता ॥ ५४ द्विधाभ्यधायि धर्मो भो यतिश्रावकगोचरः । पश्चाचारं च चरतां यतिधर्मः प्रजायते ॥५५ दर्शनं निर्मलं यत्र दर्शनाचार उच्यते । ज्ञानं पापठ्यते शुद्धं ज्ञानाचारः स कथ्यते ॥५६ चारित्रं चर्यते यत्र त्रयोदशविधं परम् । चारित्राचार उक्तः स चारुचारित्रचेतसाम् ॥५७ यत्तपस्तप्यते सद्भिः षोढा बाह्यं तथान्तरम् । तपआचार उक्तः स विचारचतुरैर्नरैः ॥५८ विशुद्ध और बुधरूप आपको हमारी वंदना है । हे देव, आपने बालसूर्यके समान तेजस्विनी राजीमतीको बाल्यकालमें छोड दिया है, जो राजीमती पूर्णचन्द्र के समान मुखवाली, मनोहर, रतिके समान सौंदर्यवाली सद्गुणोंकी खनी, दोषरहित, शृङ्गाररमपूर्ण, लक्ष्यलक्षणोंसे युक्त थी ऐसी राजमतीको आपने छोड दिया । हे देव, आपके गुणों का वर्णन करनेमें जगत्रयमें कौन समर्थ है ? ऐसी स्तुति करके वे तेजस्वी सभ्य राजा पाण्डव सभामें बैठ गये ।। ४५-५२ ॥ [ नेमिजिनका धर्मोपदेश ] " हे पाण्डवो, जो जीवोंको सुखका उत्तम साधन है ऐसा धर्म आप यत्न से एकाग्रचित्त होकर अब सुनो" ऐसा कहकर प्रभु धर्मका निरूपण करने लगे । हे राजगण, एक भेदात्मक अर्थात् अभेदात्मक और निर्मल धर्म एक है, और वह जीवदया है। षट्काय जीवोंका रक्षण करना यही उत्कृष्ट धर्म माना है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इनको स्थावर कहते हैं इनके सिर्फ स्पर्शनेंद्रिय है। तथा द्वीन्द्रियसे पंचेन्द्रियतक जीवोंको त्रस कहते हैं। पांच प्रकारके स्थावर और त्रस जीवोंको षट्काय जीव कहते हैं । यतिविषयक और श्रावकविषयक ऐसे धर्मके दो भेद भी जिनेश्वरने कहे हैं। पंचपातकों का देशत्याग करना श्रावक धर्म है और इनका संपूर्ण त्याग करना मुनिधर्म है। पांच आचारोंका पालन करनेवालोंको यतिधर्म प्राप्त होता है। निर्मल सम्यग्दर्शन जिसमें होता है अर्थात् निर्मलता से अतिचाररहित पालन सम्यग्दर्शनका करना. दर्शनाचार है । सम्यज्ञानका आठ दोषोंसे रहित अध्ययन करना ज्ञानाचार कहा जाता है। जिसमें तेरह प्रकारके चारित्र (पांच समिति, पांच महाव्रत और तीन गुप्तिरूप चारित्र) पाले जाते हैं सुंदर चरित्र में जिनका मन है ऐसे महापुरुषोंका वह चारित्राचार है। बाह्य तपश्चरण अनशन, अवमोदर्यादि छह प्रकारका और अभ्यंतर तपश्वरण प्रायश्चित्त विनयादिक छह प्रकारका है। इन दो प्रकारके तपका सज्जन पालन करते हैं। इस तपके आचरणको विचारचतुर पुरुष तप आचार कहते हैं। अपना १ स ब धर्माणाम् । ४७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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