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________________ ३६९ सप्तदशं पर्व अहो कि राक्षसः साक्षात्क्षिप्रमेति क्षयंकरः। सकलं विपुलं कुर्वन्कालोऽयं किं किलागतः॥ तदा दर्शनमात्रेण तस्य ते नृपसेवकाः । मुक्त्वा तन्मृतकं नेशुश्चकिता वा भयार्दिताः॥३०८ कुर्वन्कलकलारावं कृतान्त इव भीषणः । तेषां पृष्ठे दधावासौ मतङ्गज इवोद्धतः ॥३०९ भनो भटगणः पश्चान्न पश्यति न तिष्ठति । मृतेर्भयादहो भीतः को भजेत्स्थास्नुतामहो । पुनः पावनिना लात्वा पाञ्चाली पावनीकृता । कारयित्वा च सुनानं शुद्धा च विदधे ध्रुवम् प्रविष्टा पत्तनं प्रातः पाञ्चाली प्रेक्षिता जनैः । प्रलयश्रीरिव श्रीर्वा जनानन्दप्रदायिनी ॥३१२ कीचकमातरस्तेऽथ शतसंख्या बलोद्धताः । स्वबान्धवमपश्यन्तः संपृच्छन्ति स्म सर्वतः॥ सैरन्ध्रीतो मृतं ज्ञात्वा कथंचित्सोदरं तकौ । सैरन्ध्रीं दग्धुमुधुक्ताश्चितां कृत्वा हठाच्छठाः ॥ भीमेनैकेन संज्ञाय चितौ क्षिप्ता गताः क्षणात् । समदा दुर्दशां प्राप्ता भस्मसात्कण्टका यथा।। त्रपापरा भटाः प्रातः सकलङ्का गृहं गताः । भीमो नरपतिं नत्वा बंभणीति स्म सद्वचः॥ कीचकेन कृतं वृत्तं ह्यो रात्रौ द्रौपदीसमम् । भीमेन गदितं श्रुत्वा धर्मपुत्रोऽवदद्वचः ॥३१७ त्रयोदश दिनान्यत्र स्थेयं प्रच्छन्नतो बुधाः । भ्रात्रेति वारितास्तस्थुर्भामाद्या धर्ममानसाः॥ प्राप्त होगा ? ॥ ३०२-३१० ॥ पुनः पांचालीको भीमसेनने लाकर पवित्र किया, उसे स्नानसे निश्चयसे शुद्ध किया । प्रातःकाल नगरमें प्रविष्ट हुई पांचाली लोगोंके द्वारा प्रलयकाल की लक्ष्मीके समान अथवा लोगोंको आनंद देनेवाली लक्ष्मीके समान देखी गई ।। ३११-३१२ ॥ [ भीमने उपकीचकोंका विनाश किया ] इसके अनंतर बलसे उद्धत ऐसे कीचकके सौ भ्राता अपना बंधु नहीं दिखनेसे सब लोगोंको उसकी वार्ता पूछने लगे। सैरन्ध्रसि अपना भाई कीचक मर गया ऐसी वार्ता जानकर वे शठ हठसे चिता तयार कर सैरन्ध्रीको जलानेमें उद्युक्त हो गये। भीमको यह बात मालूम हुई । उसने सबको चितामें डाल दिया। जैसे कंटक अग्निमें डालनेसे भस्म हो जाते हैं वैसे कीचकके उन्मत्त भाई दुर्दशाको प्राप्त होते हुए भस्ममय हुए ॥ ३१३३१५ ॥ लज्जासे खिन्न हुए वीर कलंकित होकर घर गये। भीम राजाको नमस्कार कर प्रशस्त भाषण करने लगा। कल रात्रिमें कीचकने द्रौपदीके साथ की हुई प्रवृत्ति भीमने कही। वह सुनकर धर्मपुत्र बोलने लगे, “ हे सुज्ञ भाइयों, अभी तेरह दिनोंतक यहां अपनेको गुप्तरूपसे रहना चाहिये ऐसा कहकर निवारण करनेवाले धर्मको मनमें धारण करनेवाले भीमादिक बंधुगण स्वस्थ रहे ॥३१६-३१७॥ उस समय जिसकी कीर्ति कलंकित हुई है ऐसे दुर्योधन-भूपालने पाण्डवोंको देखने के लिये भेजे गये नौकर अनेक स्थलोंमें प्राप्त हुए। वे नौकर पर्वतपर और भूतलम तथा अरण्यमें, पानीमें, दुर्गमें-किलोंमें कहींभी उनको नहीं देख पाये। खूब अन्वेषण कर लौटकर आये हुए वे नौकर कौरवराजाको नमस्कार कर 'हमने पाण्डवोंको कहींभी नहीं देखा और वे जीवन्त हैं ऐसी वार्ताभी कानोंसे हमने नहीं सुनी है। इस भूतलपर हमको वे कहींभी जीवन्त अवस्थामें पां. ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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