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________________ जयाई अर्जुनकी प्रतिज्ञाको सुनकर बहुत चिन्तित हुआ । तब द्रोणाचार्यन उसे समझाबुझाकर सान्त्वना दी। प्रातःकालके होनेपर द्रोणाचार्यको जयाके रक्षणकी चिन्ता हुई । उन्होंने उसे हजारों हाथियों और लाखों घोडोंके बीचमें स्थापित किया । रणके मुखपर वे स्वयं स्थित हुए। उधर अर्जुनकी प्रतिज्ञाके निर्वाहार्थ युधिष्ठिरको अत्यधिक चिन्ता हुई । उस समय कृष्णने उन्हें आश्वसन दिया। इधर अर्जुनने शासनदेवताका आराधन कर उसकी सहायतासे विशिष्ट धनुषबाण प्राप्त किये । अब अर्जुन कृष्णके साथ रथमें आरूढ होकर युद्धार्थ चल दिया । रणभूमिमें पहुंच कर उसने घोर युद्ध किया । अर्जुनने सन्मुख प्राप्त हुए गुरु द्रोणाचार्यसे युद्धसे विमुख होनेकी प्रार्थना की, परन्तु वे हटे नहीं । अतएव वे दोनों परस्परमें बाणवर्षा करने लगे। तब कृष्णके समझानेसे अर्जुन मार्ग निकालकर आगे बढ़ा । अन्तमें वह सन्मुख आये हुय शत्रुओंका हनन करते हुए जयाईतक पहुंच गया और उसने शासनदेवतासे प्राप्त किये महानागबाणसे उसका मस्तक छेद दिया। इससे शत्रुपक्षमें हाहाकार मच गया। इस महायुद्ध में धृष्टार्जुन [ धृष्टद्युम्न ] के द्वारा गुरु द्रोणाचार्य [२०-२३३ ], अर्जुनके द्वारा १ देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्रमें जयद्रथके वधका वर्णन १३ वे सर्गके ३८७-४३४ श्लोकोंमें है । तावकिरीटी तरुणेन्दुमौलेर्वदान्यताकीर्तिवदावदेन शरेण शत्रोरनुनीतशीर्ष साकं प्रमोदेन स कौरवाणाम् ।। चं. भा. १०, ७७. २ हरिवंशपुराणके अनुसार कृष्णके द्वारा जरासंधके मारे जानेपर दुर्योधन, द्रोणाचार्य और दुःशासन आदिने निर्वेदको प्राप्त होकर विदुर मुनिके समीपमें जैनी दीक्षा ग्रहण की। कर्णने सुदर्शन उद्यानमें दमवर मुनिके पास जिनदीक्षा ग्रहण की। उसने जहां अपने कर्णकुण्डलोंका परित्याग किया था वह स्थान 'कर्णसुवर्ण' नामसे प्रसिद्ध हुआ । ह. पु. ५२, ८८-९०. दे. प्र. सूरिकृत पां. च. के अनुसार द्रोणाचार्यके शस्त्रसंन्यासका कारण युधिष्ठिरके द्वारा कहा गया 'अश्वत्थामा हतः' यह वाक्य बतलाया गया है । कि यह प्रसङग प्रस्तुत पाण्डवपुराण (२०,२२४-२३१) में भी पाया जाता है। यहां विशेष इतना है कि युधिष्ठिरने जब फिरसे “हतोऽश्वत्थामनामायं गजो न तु तवात्मजः (१३-५०६)" यह वाक्य कहा तब क्रोधित होकर द्रोणाचार्य बोले कि हे राजन् ! तुमने यह आजन्म सत्यव्रत इस वृद्ध ब्राह्मण गुरुकी मृत्युके लियेही धारण किया था। तत्पश्चात् द्रोणाचार्यने आकाशवाणी द्वारा सम्बोधित होकर क्रोधादि कषायोंके परित्यागके साथ ही पंचनमस्कारका स्मरण करते हुए शरीरका भी परित्याग कर दिया। इस प्रकार मृत्युको प्राप्त होकर वे ब्रह्म स्वर्गमें देव हुए ( १३, ४९८-५१४ )। चम्पूभारतके अनुसार भी ' अश्वत्थामा हतः' इस प्रकार युधिष्ठिरके कहनेपर सुतशोकसे पीडित होकर द्रोणाचार्यने हाथसे धनुषको छोड दिया । इसी समय धृष्टद्युम्नने शीघ्र आकर खड्गसे उनका शिर काट डाला । यथाएकेन खड्गं द्रुपदस्य सुनुः करेण चान्येन कचं गृहीत्वा । विलूय शीर्षे गुरुमप्य, द्रागन्ते वसन्तं कलयांचकार || चं. भा. १०-९७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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