SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तमत्वा विकसद्वक्रोवादीत्तां द्रौपदि शृणु। त्वां मोक्ष्यामि समाजम्यानेकदन्तिबलोऽप्यहम् ।। २५३ प्रसादं कुरु सीदन्तं मां समासीद सुन्दरि । जीवन्तं जीवनोपायैर्भोगैमा रक्ष रक्षिके ॥२५४ अवगण्यैव तं साध्वी गता सा शीलसंयुता । कीचकोऽपि मृतावस्थामाप मारशराहतः।।२५५ विजने वेश्मनि प्राप्यैकदा तां कीचकः खलः । करे धृत्वा जगावेवं मां धारय शुभैः सुखः॥ कथं कथमपि स्फीता तस्मादुल्लङ्घ्य तं गता। रुदन्ती द्रौपदी प्राप ज्येष्ठं शिष्टं युधिष्ठिरम् ॥ प्राह सा तं कृतं कर्म कीचकेन दुरात्मना । रक्षितं च मया शीलं तव देव प्रभावतः ॥२५८ धर्मात्मजो जगादैवं संकुद्धो बद्धभृकुटिः। यत्र भूपो दुराचारी दुश्चरित्राः प्रजा न किम् ॥ उक्तं च-राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः॥२६० रुदन्तीं तां पुना राजा निवार्योवाच सद्वचः । सुशीला भव निःशल्या सुशीले शीलसंपदा ॥ २६१ आ। दुःखी हुए मुझपर तूं प्रसन्न हो। भोग ही मेरे जीनेके उपाय हैं उनसे जीनेवाले तू मेरी रक्षा कर । तूं मेरी रक्षिका है ।" शील पालन करनेवाली द्रौपदीने उसकी अवज्ञाही की और वह वहांसे झट निकल गई। कीचक भी मदनबाणोंसे पीडित होकर मृतकके समान अवस्थाको प्राप्त हो गया ॥ २५३-२५५ ॥ किसी समय दुष्ट कीचक एकान्तगृहमें उसको प्राप्त कर उसका हाथ पकड कर इस प्रकार बोलने लगा-" हे सैरन्ध्री, मुझे शुभ सुखोंसे प्रसन्न कर" उस समय भी बडे कष्टसे वह उन्नतिशील नारी द्रौपदी उस संकटसे पार हुई और रोती हुई ज्येष्ठ युधिष्ठिरके पास गई ॥ २५६–२५७ ॥ द्रौपदीने दुष्ट कीचकके कृत्यका धर्मराजके पास जाकर वर्णन किया। वह कहने लगी कि “ हे देव आपके प्रभावसे मैंने शीलका रक्षण किया है " || २५८ ॥ [धर्मराजका शीलोपदेश ] धर्मात्म जने अपनी भौंहें चढाकर कुपित होकर कहा कि, “हे द्रौपदी जहां राजा दुराचारी है वहां प्रजा दुराचरण करनेवाली क्यों न होगी । क्यों कि कहा भी है, कि “ यदि राजा धर्माचरण करनेवाला हो तो प्रजा धर्ममें स्थिर रहती है, और राजा पापी हो, तो प्रजा भी पापी होती है और राजा यदि समानवृत्तिका हो तो प्रजा भी राजाकीसी होती हैं अर्थात् प्रजा राजाका अनुवर्तन करती है। जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है ।। २५९२६० ॥ जब द्रौपदी रोने लगी तो उसका निवारण कर राजाने ऐसे उत्तम वचन कहे---- " हे शीलवती द्रौपदी, तू निःशल्य-दोषरहित सुशील है। शीलसंपदासे सीता नित्य देवोंसे पूज्य हो गयी तथा मंदोदरी भी पूज्य हुई। शीलसे स्त्रियाँ सुंदर मानी जाती हैं और शीलसे सदा वे सद्गुणी होती हैं । शीलसे सर्व सम्पदा प्राप्त होती है। इस शीलसे बढकर दुसरा कोई शुभ नहीं है।" ॥२६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy