SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाण्डवपुराणम् पराभवपराभूता मुच्यमाना न द्रौपदी । तत्र तिष्ठति तः सार्ध निर्जगाम सती शुभा ॥१४१ त्यक्तमाना निजे चित्ते चिन्तयन्तः सुभावनाम् । ते चाचलति कौन्तेया मार्गे मन्दगतिप्रियाः ॥ १४२ वने चोपवने ते च वसन्ति स्म कदाचन । शिलायां शिखरिशृङ्गे मृगेन्द्रा इव निर्भयाः ।। सरिजलं पिबन्ति स्मादन्ति वृक्षफलानि च । नानावल्कलवासांसि दधते ते नरोत्तमाः।।' ४४ ततस्ते क्लेशतः प्रापुरुत्तीर्य बहुभूधरान् । कालिञ्जरवनं वीरा विविधद्रुमराजितम् ॥ १४५ पत्रोपशोभितः स्पष्टः शाखासद्घटनाश्रितः। प्रौढप्ररोहविकटो वटस्तैस्तत्र वीक्षितः ॥१४६ छायासंछन्नभूभागे तस्याधस्ते स्थिति व्यधुः । क्षुत्पिपासातपश्रान्ता वारयन्तः श्रमं परम् ॥ व्यसनमुजगगतं धर्मनामप्रवर्त, नरकगमनमार्ग सर्वदोषस्य सर्गम् परिभवतरुमूलं चापदासिन्धुकूलं निहतसुभगबुद्धि द्यूतमेतद्विरुन्द्धि ॥ १४८ द्यूतं दुर्गतिदायकं भृशमृषावादस्य संपादकम् । सर्वेषु व्यसनेषु चाद्यमुदितं लौल्यव्यवस्थापकम् । लगे । पराभवसे पीडित हुई द्रौपदी पाण्डवोंके द्वारा विदुरके घर छोडी जानेपर भी वह उसके घर नहीं रही। वह शुभ और पतिव्रता उनके साथही चली गयी। पाण्डवोंने अभिमानका त्याग किया। अपने मनमें वे सुभावनाका विचार करते थे और मार्गमें मन्दगति जिनको प्रिय है ऐसे वे प्रवास करने लगे। वे कभी वनमें और कभी बगीचेमें भी रहते थे। कभी शिलापर और कभी पर्वतके शंगपर मृगेन्द्रके समान निर्भय होकर बैठते थे। वे नदियोंका पानी पीते थे और वृक्षके फल खाते थे। वे महापुरुष नाना प्रकारके वल्कल-वस्त्र परिधान करते थे। तदनंतर वे वीर क्लेशसे अनेक पर्वतोपरसे उतरकर नाना वृक्षोंसे शोभित कालिंजर वनमें आये ।। १४०-१४५ ॥ उस वनमें पत्रोंसे शोभित, स्पष्ट दीखनेवाला, शाखाओंकी उत्तम रचनासे युक्त, प्रौढ जटाओंसे विस्तृत ऐसा वटवृक्ष उन्होंने देखा। उस वृक्षकी छायासे आच्छादित जमीनपर भूख, प्यास और उष्णतासे थके हुए, अधिक परिश्रमको निवारण करते हुए पाण्डव बैठ गये। यह द्यूत संकटरूपी सर्प रहनेका बिल है। धर्मके नामको नष्ट करनेवाला और नरकगतिका मार्ग है, सर्व दोषोंकी उत्पत्तिका स्थान है। अपमानरूपी वृक्षका यह मूल है और आपत्तिनदियोंका यह किनारा है। यह द्यूत उत्तम बुद्धिका नाशक है ऐसे द्यूतका तुम सदा विरोध करो ॥१४६-१४८॥ यह दूत दुर्गतिमें ले जाता हैं। अतिशय असत्य भाषाको उत्पन्न करता है । सर्व व्यसोनोंमें यह प्रथम है-मुख्य है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। यह लोभकी व्यवस्था करता है अर्थात् यह हमेशा लोभको बढाता है । मांस भक्षण करनेकी आशा द्यूत खेलने से बढती है । यह द्यूत मद्यपानकी आतुरतासे सुंदर दीखता है, चौर्य, शिकार, वेश्या और परस्त्रीम आसक्ति उत्पन्न करता है। अतः ऐसे द्यूतका हे भव्यों, तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy