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________________ ३३० पाण्डवपुराणम् समालिङ्ग्य पुनस्तत्र नरनारायणौ मुदा । ऊर्जयन्ते महाचित्तौ चिरं चिक्रीडतुर्वरौ ।।२३ वनक्रीडा प्रकुर्वाणौ शक्रप्रतिशक्रसनिभौ । रेमाते रागसंरक्तौ नरनारायणौ सदा ॥२४ कदाचिद्वनखेलाभिः कदाचिजलमजनैः । कदाचिञ्चन्दनोद्भतनिर्यासैः कुकुमाश्रितैः ॥२५ ऊर्जयन्ते समारोहैरवरोहैः कदाचन । रम्भाभनर्तकीनृत्यैर्नानागीतैस्तदुद्भवैः ॥२६ कदाचित्कन्दुकक्रीडां कुर्वाणौ तौ नरोत्तमौ । रेमाते स्नेहसंबद्धौ चिरं तत्र महागिरौ ॥२७ विष्णुना सह संग्राप ततो द्वारावती पुरीम् । पुरन्दरसुतः श्रीमान् पुरन्दर इवोन्नतः ॥२८ अर्जुनो विष्णुना साकं रममाणश्चिरं स्थितः । घोटकैर्दन्तिसंदोहर्नरेन्द्रैः क्रीडनोद्यतैः ॥२९ अथैकदा पृथुः पार्थो गच्छन्तीं स्वच्छमानसाम् । सुभद्रां भद्रभावाढ्यां संवीक्ष्येति व्यचिन्तयत्।। केयं सुरूपशोभाढ्या साक्षाच्छक्रवधूरिव । नदन्नूपुरनादेन जयन्तीव दिगङ्गनाः ॥३१ ।। कटाक्षक्षेपमात्रेण जीवयन्ती मनोभुवम् । यं ददाह पुरा योगी ध्यानकृपीटयोनिना ॥३२ किमियं रतिरेवाहो पना पद्मावती किमु । रोहिणी सूर्यकान्ता वा सीता वा किनरी पुनः ।। लभ्यते चेदियं रम्या मया मृगविलोचना । वक्रेन्दुजिततामस्का तदाह स्यात्सुखी महान् ॥३४ करनेके लिये आसक्तचित्त होकर आया। वे महान उदारचित्त दोनों महापुरुष नर और नारायण आनंदसे अन्योन्यको आलिंगन देकर उस पर्वतपर दीर्घकालतक क्रीडा करने लगे। इन्द्र और प्रतन्द्रिके समान, प्रेमसे रंगे हुए, वे नर-नारायण हमेशा वनक्रीडा करते हुए वहां रममाण हुए। वे नरोत्तम कभी वनक्रीडा करते थे, कभी जलविहार करते थे, कभी केशरमिश्रित चन्दनरसकी उवटन देहपर लगाते थे । कभी ऊर्जयन्त पर्वतपर चढ जाते थे और फिर उतरते थे। कभी वे दोनों रंभाके समान नर्तकीयोंके नृत्योंसे, कभी उन नर्तकीयोंके गायन सुननेसे अपने मनको रमाते थे। अन्योन्यस्नेहतत्पर वे नर-नारायण उस पर्वतपर कन्दुक क्रीडा करते हुए दीर्घकालतक रममाण हुए ॥२०२७ ॥ इन्द्रके समान उन्नत, श्रीमान् इन्द्रपुत्र अर्जुन विष्णुके साथ उस पर्वतसे द्वारावती नगरीको आया। अर्जुनने विष्णुके सहबासमें क्रीडाके लिये उद्यत ऐसे हाथी, घोडे और राजाओंसे चिरकाल रमता हुआ रहा ॥ २८-२९ ॥ [ अर्जुनके द्वारा सुभद्राहरण ] इसके अनंतर एक दिन महापुरुष अर्जुनने शुभविचारसे पूर्ण, निर्मल अन्तःकरणवाली सुभद्रा आगे जाती हुई देखकर इस प्रकार विचार किया । “ साक्षात् इन्द्रकी स्त्री शचीके समान रूपवाली यह कन्या कौन है ? रणत्कार करनेवाले नपुरके शब्दोंसे मानो यह दिशारूपी स्त्रियोंको जीतती है। जिसको पूर्व कालमें योगियोंने ध्यानरूपी अग्निसे दग्ध किया था, ऐसे मदनको यह कन्या केवल कटाक्षक्षेपहीसे जिलानेवाली है। क्या यह मदनकी स्त्री रति है ? अथवा लक्ष्मी है ? किंवा पद्मावती है ? यह रोहिणी, सूर्यकी स्त्री, अथवा सीता किंवा किन्नरी है ? यह रमणीय हरिणनयना, जिसने अपने मुखचन्द्रसे अंधकारको नष्ट किया है, यदि मुझे प्राप्त होगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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