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________________ त्रयोदशं पर्व २८३ पत्युः स्नेहसुखाशार्थ गृहवासो हि केवलम् । अबलानां बलं सोऽत्र तं विना का गृहं वसेत् ।। विधवा स्त्री सभामध्ये शोभते न कदाचन । अविवेकी यथा मर्यो वाथ लोभाकुलो यतिः।। विधवानां त्रपाकार्यञ्जनं ताम्बूलभक्षणम् । श्वेतवासो विना नान्यद्भषावच्छोभते शुभम् ॥ मृते गतेऽथवा पत्यौ युवती संयमं श्रयेत् । तपसा निर्दहेदेहं करणानि च सत्वरं ॥१४० भोजनं वसनं वार्ता कौशल्यं जीवनं धनम् । वस्नेहः शोभते स्त्रीणां विना नाथंकदापि न ।। एवं वृत्तेत्र वृत्तान्ते तासां संयमकोविदः। दमितारिमुनिर्ज्ञानी समायासीजिनालये॥१४२ तास्तं योगीन्द्रमावीक्ष्य सहर्षाः कोपवर्जिताः। विधा परीत्य सद्भक्त्या नेमुस्तत्पादपङ्कजम् ॥ कन्या अकथयन्वामिन् योगीन्द्रं योगभास्करम् ।। कृपां कृत्वा प्रव्रज्यां नो यच्छ स्वच्छमनोमल ॥ १४४ अवदस्ता यथा वृत्तं मुनीन्द्रं पाण्डवोद्भवम् । ज्वलिते भर्तरि श्रेष्ठास्माकं दीक्षा शुभावहा ॥ मैंभी कुछ कहना चाहती हूं, उसे आप सुने ।"-पतिके स्नेहकी आशासे और केवल उससे प्राप्त होनेवाले सुखोंकी आशासे स्त्रियां घरमें रहती हैं। इहलोकमें पति स्त्रियोंका बल है, यदि वह नहीं हो तो घरमें कौन रहेगी ?” ॥ १३६-१३७ ॥ “ विधवा स्त्री सभामें कदापि नहीं शोभती है । अविवेकी मनुष्य और लोभी मुनिके समान विधवा स्त्री सभामें-समाजमें शोभा नहीं धारण करती है। विधवा स्त्रीका आंखोंमें अंजन लगाना अर्थात् कजल और सुरमासे आंखें आंजना श्रृंगारिककार्य होनेसे त्याज्य है, लज्जाजनक है। ताम्बूल भक्षण करनाभी उसे वर्ण्यही है, अलंकारके समान अन्य रंगयुक्त वस्त्र धारण करनाभी शोभाजनक नहीं हैं। अर्थात् विधवा स्त्रीका अलंकार धारण करना और सुंदर नानाविध चित्र विचित्र वस्त्र धारण करना शोभास्पद नहीं। लज्जाजनक है। शुभ्र वस्त्र धारण कर निर्भूषण अवस्थामें रहना ही उसके लिये शुभ है" ॥ १३८-१३९ ॥ पति मरनेपर अथवा गृहत्याग कर निकल जानेसे स्त्री संयम धारण करें । तपश्चरणसे वह अपना देह क्षीण करें। तथा स्पर्शादिविषयोंके प्रति गमन करनेवाली इंद्रियां शीघ्र क्षीण करें। भोजन, वस्त्रधारण करना, शंगारिक बातें करनेका चातुर्य, जीवन, धन और शरीरके ऊपर स्नेह ये बातें बिना पतिके स्त्रियोंके नहीं सोहती हैं " इस प्रकार उन राजकन्याओंमें आपसमें चर्चा चल रही थी। इतनेमें संयमनिपुण, ज्ञानी दमितारि नामक मुनि जिनमंदिरमें आये ॥ १४०-१४२ ॥ वे राजकन्यायें योगीन्द्रको देखकर हर्षित हो गयीं। कोपवर्जित-शान्त हो गई। उन्होंने मुनीश्वरको भक्तिसे तीन प्रदक्षिणायें देकर उनके चरणकमलोंको वन्दन किया। योगको-ध्यानको प्रकाशित करनेमें सूर्यके समान योगीन्द्रको कन्यायें कहने लगीं-" हे स्वामिन्, मनके मलको स्वच्छ करनेवाले हे मुनिराज आप कृपा करके हमें दिक्षा देवें। उन्होंने पाण्डवोंका वृत्तान्त जैसा हुआ था सब कहा। पतिके जलकर मरनेपर हमारे लिये दीक्षा धारण करनाही श्रेष्ठ और शुभावह है । क्यों कि कुलीन स्त्रियोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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