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________________ २८१ त्रयोदशं पर्व एकदा ताश्चतुर्दश्यां प्रोषधं द्वयष्टयामकम् । गृहीत्वा श्रीजिनागारे वनस्थे विदधुः स्थितिम् ।। तत्रैव ता अहोरात्रं धर्मध्यानपरायणाः । व्युत्सर्गविधिसंशुद्धा निन्युः संनिश्चयान्विताः ॥ जिनचक्रिनरेन्द्राणां ताः कथाः कथनोद्यताः। निशां नीत्वा प्रगे सर्वाश्चक्रुःसामायिकी क्रियाम ततः प्रोवाच सश्रीका राजपुत्री गुणप्रभा । अत्रैव पारणां शुद्धाः करिष्यामो वयं लघु ॥ तत्र चेन्मुनिदानेन पारणा सफला भवेत् । तदानीं सफलं जन्म जायतेऽस्माकमुन्नतम् ॥१२० दत्त्वा च मुनये दानं ग्रहीष्यामो वरं तपः। तत्पार्श्वे शुद्धचेतस्का भावयन्तीति भावनाः ।। अहो संसारवैचित्र्यं विद्यते परमं महत् । सुधियामपि जायेत ममत्वं तत्र मोहतः ॥१२२ पुनः स्त्रीत्वं भवेनिन्धं भवे दुष्कर्मयोगतः । जातमात्रा तु पितॄणां पुत्री दुःखाय कल्पते ।। वर्धमाना पितुर्दत्ते वरान्वेषणसंभवाम् । चिन्तां विवाहिता सापि पतिजा शर्महारिणीम् ॥ कदाचिच्चेद्वरो दुष्टो व्यसनी वा क्रियातिगः। मृषावाग्विनयातीतो दुरोदररतः सदा ॥१२५ सरोगो विभवातीतः परनारीषु लम्पटः । अन्यायी क्रोधसंबद्धो धर्मातीतोऽतिदुर्मतिः॥१२६ ईदृशश्चेदुराचारः स्त्रिया दुष्कर्मपाकतः । तस्या दुःखाय जायेत तदुःखं कोऽत्र वेश्यहो ॥१२७ रात्र उस जिनमंदिरमेही व्यतीत की। जिनेश्वर, चक्रवर्ती और अन्य बलभद्रादिक राजाओंकी कथा वे कहने लगी । इस प्रकार उन्होंने रात बिताकर प्रातः कालमें सामायिकक्रिया की ॥ ११५११८ ॥ इसके अनंतर शोभासंपन्न राजपुत्री गुणप्रभाने अपनी सब बहिनोंको कहा कि “ आज हम यहांही शीघ्र शुद्ध पारणा करेंगी। यदि उस समय मुनिदान करनेका श्रेय मिलेगा, तो पारणा सफल होगी। उस समय हमारा जन्म सफल और उन्नत हो जावेगा। मुनीश्वरको दान देकर हम उनके पास उत्तम तपश्चरण करेंगी। अर्थात् हम उनसे आर्यिकाकी दीक्षा धारण कर तप करेंगी, इस प्रकार शुद्ध अन्तःकरणवाली राजकन्यायें भावना भाने लगीं" ॥११९-१२१॥ [स्त्रीपर्यायके दुःख] अहो इस संसारकी नानाविधता बडी आश्चर्यकारक है । मोहसे उसमें विद्वानोंकोभी ममत्व उत्पन्न होता है। नानाविधतामें 'स्त्रीत्व' भी एक निन्द्य वस्तु है। वह स्त्रीत्व संसारमें प्राणियोंको अशुभ कर्मके उदयसे प्राप्त होता है। कन्या उत्पन्न होने मात्रसे मातापिताओंको चिन्तारूपी दुःखसे पीडित करती है। जब वह बढती है, तब पिताको वरशोधनसे उत्पन्न हुए दुःखसे दुःखित करती है अर्थात् कन्यायोग्य पतिको ढूंढनेका क्लेश पिताको भोगना पडता है। कन्याका विवाह करनेपर उसको पतिसे इसे सुखप्राप्ति होगी या नहीं यह दुःख उत्पन्न होता है। यदि कदाचित् वर-पति दुष्ट, व्यसनी, उदरनिर्वाहकी चिन्ता न करनेवाला-अलसी, झूठ बोलनेवाला, विनय रहित-उद्धत, जुगार खेलनेमें हमेशा तत्पर, रोगी, विभवातीत-दरिद्री, परस्त्रियोंमें लंपट, अन्यायी, क्रोधी, धर्मरहित, अतिशय दुर्बुद्धिवाला, इस प्रकारका कन्याके अशुभकर्मके उदयसे मिल गया तो उसे जो दुःख होगा उसे कौन जाननेमें समर्थ होगा ? अर्थात् ऐसे सदोष पतिसे कन्याको तिलमात्रभी सुखकी प्राप्ति नहीं पां.३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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