SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६५ द्वादशं पर्व त्वं कपासागरो नित्यं न्यायवेदी विचक्षणः। धर्माधर्मविवेकज्ञो लोकज्ञो लोकनीतिवित् ॥ त्वत्समो विनयी लोके द्वितीयोन न विद्यते । अद्वितीयपराक्रान्तिर्यद्युक्तं तद्विधेहि भोः॥ ततो युधिष्ठिरेशेन विशिष्टेन हितैषिणा । स्वचित्चे भावितं भव्यं सुभावं भयहानये ॥३२२ भीमेन भूरिशो भक्ता भ्रातरो दर्शिता वराः। हतये जननी चापि तम युक्तं हि भृतले ॥ पार्थिवः पतनोयुक्तः स्वयमप्सु सुपावनः। आहूय बान्धवान्युक्त्या शिक्षया समयोजयत ॥ भवद्भिातरो भक्त्या भजनीया सदाम्बिका। जननीभक्तितो लभ्या यतः सर्वार्थसंपदः॥ तथा परोपकारेण प्रीणनीयाः परे जनाः। परोपकारनिष्ठानां विशिष्टत्वं यतो भवेत् ॥३२६ कौरवा न च विश्वास्या विश्वे विश्वासघातकाः। आशीविषा इवात्यर्थ तद्विश्वासे कुतः सुखम्।। तथावसरमासाद्य विपाद्य कौरवान्खलान् । खनीवृति स्थिति भव्या भजताद्भुतविक्रमा॥३२८ इति शिक्षा प्रदायाशु सुशिष्यान्दक्षमानसान | नीरावस्वतः स्नात्वा परिहत्य मनोमलम ।। युधिष्ठिरः स्थिरो ध्याने विशुद्धो धर्ममानसः। रागद्वेषविनिर्मुक्तः पश्चसन्नुतिभावुकः॥३३० सागर है, न्याय जाननेवाला और चतुर है, धर्म और अधर्मका भेद तुझे मालूम है । त लोकको और लोकनीतिको जानता है। तुम सरीखा विनय करनेवाला पुरुष जगतमें दुसरा नहीं है। तुम अद्वितीय पराक्रमी हो। इस लिये जो योग्य अँचता हो वह करो"॥ ३२०-३२१ ॥ हितेच्छु, विशिष्ट युधिष्ठिरने भय नष्ट करनेके लिये अपने मनमें उदार विचारकी भावना की। भीमने अतिशय भक्ति करनेवाले अपने श्रेष्ठ भाई बलि देने योग्य हैं ऐसा कहा । माताकोभी मारनेके लिये कहा परंतु वह कार्य इस भूतलमें योग्य नहीं है ।। ३२२-३२३ ॥ सुपवित्र धर्मराज स्वयं पानीमें कूदनेके लिये उद्युक्त हुआ। उसने बांधवोंको युक्तिसे बुलाकर इस प्रकारका उपदेश दिया। “हे भाईयों, तुम हमेशा माताकी भक्तिसे सेवा करो। क्योंकि माताकी भक्ति करनेसे. सर्व वस्तुओंकी सम्पदा प्राप्त होती है । तथा परोपकार करके सर्व लोगोंको तुम सन्तुष्ट करो । परोपकारमें तत्पर रहनेवाले लोगोंको अन्य लोगोंकी अपेक्षासे विशिष्टता प्राप्त होती है। सब कौरव सर्पके समान विश्वास-घातक हैं। उनपर विश्वास कदापि मत रखो। उनपर विश्वास रखनेसे तुम्हें सुख नहीं मिलेगा। तथा योग्य संधि प्राप्त होनेपर दुष्ट कौरवोंको नष्ट कर अद्भुत पराक्रमवाले तुम भव्य अपने देशमें दीर्घकालतक राज्य करो"॥३२४-३२८॥ इस प्रकारसे दक्ष मनवाले अपने शिष्योंको धर्मराजने उपदेश दिया। वे अनंतर जलसे गीले वस्त्रसे स्नान करके और मनका मल हटाकर धर्ममें मन स्थिरकर. ध्यानमें निश्चल रहे। उन्होंने रागद्वेष छोड दिये। पश्चनमस्कार का मनमें चिन्तन करने लगे। शत्रुमें, मित्रमें, तथा बंधुमें समतारस धारण किया। अपनी आत्माको अपने शरीरसे भिन्न मानकर वे निरिच्छ हो गये। दो प्रकारका संन्यास धारण करके उत्कृष्ट पदको वे चिन्तने लगे अर्थात् अपनी आत्माके शुद्ध स्वरूपका वे विचार करने पां.३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy