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________________ द्वादशं पर्व २५५ तद्वार्ता विस्तृतां लोके संप्राप्तां द्वारकां पुरीम् । दाशार्हाः शुश्रुवुर्भोजाः प्रलम्बनश्च केशवः॥ समुद्रविजयः श्रीमान्समुद्र इव विस्तृतः। रुड्वाडवामिना क्षुब्धश्चचाल रुक्सुवीचिमान्।।२१३ हलायुधो महायोद्धा समृद्धो विविधायुधः। युद्धार्थं स च संनद्धो बली कोत्र विलम्बते॥ दामोदरस्तदा दर्पाद्वारितानेकशात्रवः । करं व्यापारयामास संनाहे सिंहविक्रमः ॥२१५ शोकसंतप्तसर्वाङ्गा बाष्पपूरितलोचनाः । दुन्दुभिं दापयामासुः संगराय च यादवाः ।।२१६ तद्भेरीनादतः क्षुब्धा विबुधा बोधवेदिनः । दाशार्हाश्च हृषीकेशं बलमभ्येत्य चाभणन् । किमर्थमयमारम्भो विज्ञाप्यं श्रूयतामिति । योग्ये समुद्यमो युक्तो विदुषां चान्यथा क्षितिः।। हृषीकेशोगदीद्दीप्तो दीप्त्या भास्करसंनिभः। कौरवानत्र चानीय क्षिपामि वडवानले ॥२१९ अथवा खण्डशः क्षिप्रं खण्डयित्वाखिलागिपून् । आजौ जित्वा स्वजय्योऽहं दास्यामि ककुभां बलिम् ॥२२० दग्ध्वाथ पाण्डवांश्चण्डाः क्य ते स्थास्यन्ति कौरवाः। मयि कुद्धे समृद्धे च मृगारौ द्विरदा इव ॥ २२१ के निमित्त उसने उस समय बडा उत्सव किया ॥२११ ॥ पाण्डवोंको कौरवोंने जलाया यह वार्ता सर्वत्र फैल गई। वह द्वारिकामें यादवोंके कान तक पहुंच गयी। तब दशाई समुद्रविजयादिक, भोजवंशीय राजा, बलभद्र और केशव-कृष्ण इन्होंने भी सुनी ।। २१२ ॥ श्रीमान्-लक्ष्मीवान् समुद्रविजय समुद्रके समान विस्तृत हुए अर्थात् वे रोषरूपी वडवाग्निसे क्षुब्ध हुए और कान्तिरूपी तरंगोंसे चलने लगे ॥२१३ ॥ जिनके पास अनेक आयुध हैं, जो ऐश्वर्यशाली महायोद्धा हैं ऐसे बलभद्र युद्धके लिये तयार होगये। योग्यही है, कि जो बलवान हैं वे युद्धके लिये विलम्ब नहीं करते हैं। जो सिंहसमान पराक्रमी है दर्पसे जिसने अनेक शत्रु नष्ट किये हैं ऐसे दामोदर श्रीकृष्णने कवचके लिये अपना हाथ आगे बढाया ॥ २१४ ॥ शोकसे जिनका सर्वांग सन्तप्त हुआ है, जिनकी आँखें अश्रुसे भर गयी हैं ऐसे यादव राजाओंने युद्ध के लिये दुन्दुभि बजवाई । युद्धके भेरीनादसे क्षुब्ध,ज्ञानका स्वरूप जाननेवाले विद्वान् लोग और दाशार्ह, श्रीकृष्ण और बलभद्रंके पास आकर इस प्रकार बोलने लगे । “ आप यह आरंभ किस लिये कर रहे हैं, हमारी विज्ञप्ति आप सुन लीजिये । विद्वानोंको योग्य कार्यमें उद्यम करना योग्य है अन्यथा कार्यका नाश होता है" ॥ २१५-२१८ ॥ कान्तिसे सूर्यके समान श्रीकृष्ण प्रदीप्त होकर कहने लगे। कि “मैं कौरवोंको यहां लाकर वडवानलमें फेंक दूंगा। अथवा शत्रुओंके द्वारा कदापि नहीं जीता जानेवाला मैं युद्धमें उनको जीतकर उनके टुकडे टुकडे कर दूंगा, और सर्व दिशाओंको उनका बलिदान कर दूंगा। जैसे प्रचण्ड सिंह क्रुद्ध होनेपर हाथी कहां ठहर सकते हैं वैसे समृद्धिशाली मैं क्रुद्ध होनेपर चण्ड पाण्डवोंको जलाकर वे कौरव कहां रहेंगे? जबतक मेंडक सर्पको नहीं देखते हैं तबतक वे शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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