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________________ द्वादशं पर्व २४१ अन्यदा पत्तने तेन च्छलेनोच्छलितात्मना। लाक्षामयं क्षणैः साधं क्षणेन विदधे महत् ॥५२ कचिद्विकटकूटेन संकटं प्रकटं स्फुटम् । टङ्कोत्कीर्णमिवाभाति सुघण्टाटङ्कितं गृहम् ॥५३ जालिकाजालसंपूर्ण कचित्तद्वेश्म विस्तृतम् । पाण्डवानां सुजालं. वा व्यभाज्ज्वलनसंनिभम् ।। कचित्कटाक्षक्षेपाय गवाक्षं क्षणसुन्दरम् । तेषां गोहतयेऽक्ष्णां च दक्षः सममकारयत ॥५५ कचित्तद्गहमाभाति तरत्तोरणसुश्रिया । अतो रणच्छलं द्रष्टुं निर्मितं मूर्तिमद्रणम् ॥५६ सुस्तम्भस्तम्भितं क्वापि वेश्मस्तम्भनविद्यया। स्तम्भितुं वैरिणो नूनं सुस्तम्भमिव सुस्थिरम्॥ क्वचिद्विचित्रचित्रेण चित्रितं च कुमित्रवत् । चित्रं यथा सुभित्तौ च चमत्कारकरं हि तत् ।। प्रतोलीपरिखापूर्ण वप्रप्राकारशोभितम् । जतूदवासितं वेगाद्विदधे कौरवाग्रणीः॥५९ ततस्तृप्तिं वितन्वानं पितामहमवीवदत् । कौरवा विनयावासा नयेन नतमौलयः॥६० पितामह सुगाङ्गेय गङ्गाजलसुनिर्मल । निर्मितं सम निश्छम भक्त्यास्माभिः स्मयावहम्॥ यदुत्तुङ्गसुश्रृङ्गेण गगनं गन्तुमुद्यतम् । जेतुं जित्वरशीलानां सुराणां सौधसंततिम् ॥६२ यत्स्तम्भबाहुयुग्मेन ग्रहीतुं परवेश्मनाम् । संपदां सुपदापन्नं विपद्वारं रराज च ॥६३ दुर्योधनने धर्मात्मजादिकोंको अर्थात् युधिष्ठिरादिकोंको मारनेमें धर्मरहित बुद्धिको-पापबुद्धिको धारण किया ॥५१॥ किसी समय हस्तिनापुर नगरमें अतिशय कपटी स्वभाववाले दुर्योधनने शीघ्रही बडा लाक्षागृह बनवाया । वह कहीं कहीं बडे शिखरोंसे युक्त था, कहीं कहीं उसमें घंटायें लटकाई थी। वह खूब प्रकाशयुक्त था,और टाकीसे मानो उत्कीर्ण हुआ शोभता था। वह विस्तृत गृह कहीं कहीं जालि. काओंके समूहसे भरा हुआ था; मानो पाण्डवोंके लिए बनाया गया अग्मितुल्य जालही हो । चतुर दुर्योधनने उस गृहमें पांडवोंके नेत्रोंको हरनेवाले प्रकाश देने योग्य सुंदर गवाक्ष बनवाये। कहीं कहीं वह गृह चंचल तोरणोंकी उत्तम शोभासे सुंदर कर दिया गया। मानो कौरव पाण्डवोंका रणच्छल देखनेके लिये मूर्तिमान् रण निर्माण किया गया हो। कुछ प्रदेशोंमें उत्तम स्तंभोंसे युक्त वह गृह वैरियोंका स्तंभन करने के लिये स्तंभन विद्याने मजबूत और उत्तम स्तंभयुक्त गृहही बनवाया हो ऐसा भास होने लगा। उस गृहकी भित्तियां नानाप्रकारके चित्रोंसे चित्रित की गई थी। इसलिये वह जैसा कुमित्र अपने अनेक टेढे परंतु हिताभासरूप अभिप्रायोंसे आश्चर्य उत्पन्न करता है, वैसा ऐश्वर्ययुक्त दीखने लगा। वह मार्ग और खाईसे युक्त था। धूलिसाल और तटसे सुंदर ऐसा लाक्षागृह कौरवोंके अगुआ दुर्योधनने शीघ्र बनवाया दिया ॥ ५२-५९॥ नीतिसे नतमस्तक और विनयके निवासस्थान ऐसे कौरवोंने लाक्षागृहके निर्माणानंतर प्रीतिको विस्तारसे करनेवाले अर्थात् अतिशय प्रेमयुक्त ऐसे पितामहको-भीष्माचार्यको इस प्रकारसे कहा “ गंगाके पानीके समान निर्मल हे पितामह गांगेय, हमने भक्तिसे कपटरहित होकर आश्चर्यकारक घर बनवाया है। जो जयशाली देवोंकी प्रासादपंक्तिको जीतने के लिये ऊंचे शिखरोंसे आकाशमें जानेके लिये उद्यत हुआ है । यह पां. ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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