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________________ २३८ पाण्डव पुराणम् श्रुत्वा तद्वचनं विष्णुस्तथेति प्रतिपद्य च । संमानितस्ततो दूतो हास्तिनं गतवान्क्षणात् ॥१९ ततस्तु मदनं लेभे रुक्मिणी वैरिणा हृतम् । जातमात्रं खगेशेन पालितं परमोदयम् ॥२० तत्र लाभाशुभान्लब्ध्वा षोडशाब्दे च षोडश । नारदेन समानीतो गृहं तस्थौ च मन्मथः ॥ सत्यभामा सुतं शीघ्रं सुषुवे सातसंगता । भानुं भानुमिव प्राची प्रध्वस्ततिमिरोत्करम् ॥ २२ अथैकदा सभास्थाने भुञ्जन्तो भोगसंपदम् । स्थिता अधीर्धसाम्राज्यं पाण्डवाः कौरवाश्च ते ।। सुखतः समयं निन्युः समयज्ञा नयान्विताः । अर्धराज्यं प्रकुर्वाणाः पाण्डवाः पटुपण्डिताः ॥ कौरवाः कौरवं कृत्वा परर्द्धिमसहिष्णवः । दुर्योधनादयस्तस्थुः कौशिका इव भास्करम् ||२५ दुष्टा दुर्योधनाद्यास्ते विधातुं संधिदूषणम् । उद्युक्ता व्यक्तवाक्येन वदन्ति स्मेति दुर्नयाः ॥२६ वयं शतमिमे पञ्च कथमधर्धभागतः । साम्राज्यं भुज्यते भङ्क्त्वा सर्वैरन्याय इत्ययम् ॥ पञ्चोत्तरशतं भागान्कृत्वा साम्राज्यमुत्तमम् । भोक्ष्यामहे वयं वर्या नान्यथा न्यायविच्युतेः।। प्रचण्डाः पाण्डवाः पञ्च कथमर्धस्य भागिनः । साम्राज्यस्य शतं सम्यग्वयं किंचार्धभागिनः ॥ २९ तथास्तु ऐसा कहकर स्वीकार किया । तदनंतर सम्मानित किया दूत हस्तिनापुरको जल्दी चला गया ॥ १६-१९॥ तदनंतर रुक्मिणीको मदनपदका धारक पुत्र हुआ परंतु जन्म होनेके बाद ही वैने उसका हरण किया । विद्याधरने उसका पालनपोषण किया। वह विद्याधरके घरमें उत्कृष्ट वैभव को प्राप्त हुआ । विद्याधरके क्षेत्र में उसको सोलह शुभ लाभ प्राप्त हुए । जब उसको सोलह वर्ष पूर्ण हुए तब नारद वहांसे उसे लाया वह मदन सुखसे आकर अपने घरमें रहने लगा ॥२०–२१॥ जैसी पूर्व दिशा अंधकारका समूह नष्ट करनेवाले सूर्यको जन्म देती है वैसी सुखसे युक्त सत्यभामाने सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रको शीघ्र जन्म दिया ॥ २२ ॥ किसी समय पाण्डव और कौरव आधा आधा साम्राज्य लेकर भोगसम्पदाको भोगने लगे वे हररोज राज सभामें एकत्र आकर बैठते थे || २३ || नयसें युक्त, समयको जाननेवाले, अतिशय चतुर विद्वान् ऐसे पाण्डव अर्द्धराज्यमें अपना शासन करते हुए सुखसे काल व्यतीत करने लगे ॥ २४ ॥ जैसे कौशिक - उल्लु पक्षी सूर्यको सहन नहीं करते हैं, उसके साथ वे द्वेष करते हैं वैसे दूसरेकी ऋद्धि-उत्कर्ष सहन न करनेवाले दुर्योधनादिक कौरव पृथ्वीतलमें शब्द करते हुए अर्थात् कलह करते हुए कालयापन करने लगे ॥ २५ ॥ दुष्ट और दुराचरण करनेवाले दूषण उत्पन्न करनेके लिये उद्युक्त होकर स्पष्ट वाक्योंसे इस प्रकार बोलने लगे ये पाण्डव केवल पांचही हैं परंतु आधा आधा राज्य दोनों मिलकर हम भोग रहे हैं । अर्थात् पाण्डव पांच होकर भी उनको आधा राज्य दिया गया है और हम सौ होनेपर भी हमको आधाही राज्य दिया है, यह अन्याय हुआ है । वास्तविक इस राज्यके १०५ विभाग करके इस उत्तम साम्रा दुर्योधनादिक संधिमें । 'हम सौ हैं और 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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