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________________ पाण्डवपुराणम् जिनस्य जननीं गूढा त्रिः परीत्यानमच्छची । तस्थौ मातुः पुरो देशे पश्यन्ती परमं जिनम्।। कराभ्यां तं समादाय मुक्त्वा मायामयार्भकम् । शची पुरंदराभ्यर्ण जगाम सुसुरीस्तुता॥ पुरंदरकरे प्रीता ददौ दीप्ता सुनन्दनम् । तमर्भकं समादाय सोऽपि मेरुमुपस्थितः ॥१८७ मेरौ च पाण्डुकरण्ये पाण्डुकायां सुरोत्तमाः। शिलायां स्थापयामासुः सिंहपीठे जिनार्भकम् ॥ शातकुम्भमयैः कुम्भैः क्षीराब्धिसुपयोभृतैः। अष्टाधिकसहस्रैश्वास्नापयत्तं सुरोत्तमः ॥१८९ गन्धोदकेन संबन्ध्य बन्धुरं श्रीजिनोत्तमम् । संबध्नन्तः स्वयं पूताः सुरास्तेनाभवन्मुदा॥ शची संस्कारयोगेन संस्कृत्य तं जिनेश्वरम् । तद्रूपसंपदं तृप्ता पश्यन्ती नाभवत्तदा ॥१९१ शक्रस्संस्तोतुमुद्युक्तस्तं शचीसंगतः शुभम् । निःस्वेदास्पदनैर्मल्यविपुलक्षीरशोणित ॥१९२ आद्यसंस्थानसंस्थात आद्यसंहननोत्तम । सौरूप्यपरिपूर्णाङ्ग सौरभ्यभरभूषित ॥ १९३ अष्टाधिकसहस्रेण लक्षणेन सुलक्षित । उपमातीतवीर्येश हितप्रियवचःपते ॥१९४ दशातिशययुक्ताय ते नमोऽस्तु शिवात्मज । अरिष्टचक्रनेमीशे श्रेयोरथसुनेमये ॥१९५ स्तुत्वेति ताण्डवं कृत्वा मघवा साघविघ्नहत् । सुरौघैरङ्कमारोप्य तमागानगरी प्रति ॥१९६ तीन प्रदक्षिणा देकर माताको वन्दन किया । और उत्कृष्ट जिनबालकको देखती हुई माताके आगे वह खडी हुई । मायामय बालक माताके आगे रखकर अपने दोनो हाथोंसे जिनबालकको ग्रहणकर उत्तम देवियोंके द्वारा स्तुति की गयी वह इन्द्राणी इन्द्रके पास गई ॥ १८४-१८६ ॥ आनंदित हुई कान्तियुक्त शचीने जिनबालकको इन्द्रके हाथमें दिया। उस बालकको लेकर वहभी मेरूंके समीप चला गया। मेरूपर्वतपर पांडुक वनमें पाण्डुकशिलाके सिंहासनपर श्रेष्ठ इन्द्रोंने जिन बालकको स्थापन किया ॥ १८७-१८८ ॥ क्षीरसमुद्रके उत्तम जलसे भरे हुए एक हजार आठ सुवणके कुम्भोंसे सौधर्मेन्द्रने प्रभुका अभिषेक किया। अतिशय मनोहर श्रीजिनेश्वरको गन्धोदकसे संबद्धकर अर्थात् गंधोदकसे आनन्दके साथ अभिषेक करके श्रीजिनेश्वरके साथ संबंधको प्राप्त हुए वे देव स्वयं पवित्र हुए ॥ १८९-१९० ॥ उबटनोंसे और अलंकारोंसे जिनेश्वरको सुसंस्कृतकर उनकी रूपसम्पदाको देखकर इन्द्राणी तृप्त नहीं हुई ॥ १९१ ॥ इसके अनंतर इन्द्र शचीके साथ शुभ जिनेश्वरकी स्तुति करनेके लिये उद्युक्त हुआ। हे जिनेश्वर आपका शरीर स्वेदरहित, निर्मल, विपुल दूधके समान रक्तसे युक्त है। आप आद्य संस्थानमें स्थिर हैं अर्थात् समचतुरस्र संस्थानसे आपका देह अतिशय सुंदर दीखता है। आद्य संहननसे आप उत्तम हैं। आपका शरीर सौंदर्यसे परिपूर्ण और सुगंधसे शोभित हुआ है । एक हजार आठ लक्षणोंसे आप खूब अच्छे दीखते हैं। हे प्रभो आप उपमारहित शक्तिके स्वामी हैं। हितकर और प्रिय भाषाके आप प्रभु हैं। हे शिवादेवीके पुत्र दश अतिशयोंसे युक्त आपको हम वन्दन करते हैं। हे प्रभो, आप अरिष्टचक्र-विघ्नसमूहको चूर्ण करनेमें चक्रकी लोहपट्टीके समान हैं। आप धर्मरथकी नेमि हैं। इस प्रकार प्रभुकी स्तुति कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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