SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ पाण्डवपुराणम् भास्वद्रत्नमयो यत्र शालस्तां परिवव्रके। तुङ्गतोरणसत्स्तम्भप्रतोलीपरिखान्वितः ॥७७ मध्येपुरं यदनां च बान्धवानां नरेशिनाम् । समिभ्यानां च लोकानां गृहाणि विदधुः सुराः॥ कचित्सरः कचिद्वापी कचिच्छ्रीजिनमन्दिरम् । कचिजनाश्रयं तुझं विदधे धनदो महान् ॥ अब्धिखातिकया वेष्टथा नानाद्वारावलीयुता। द्वारिकेति गता ख्याति पुरी लेखपुरीव या॥ तत्र यादवभूपालाः समुद्रविजयादयः । कंसारिणा समं सर्वे निवसन्ति स्म वेश्मसु ॥८१ अथ तत्र सुखासीनः समुद्रविजयो जयी । अजय्यो दस्युवर्गेण जितात्मा जितमत्सरः॥८२ विशुद्धो धर्मधी(रो विद्वान्विबुधवन्दितः। सधृतिधर्मकर्माब्यो धराधीशः समृद्धिभाक् ॥८३ भेजे भोगान्सुभव्यात्मा भवहर्तुः सुभक्तिमान् । शुशुभेऽत्र भवान्मतो भुवो भ्राजिष्णुभूतलः॥ तजाया जगदानन्ददायिनी दानदायिका । शिवादेव्यभिधा दक्षा दधाना विशद्रां मतिम्॥ अनङ्गेन कृतावासा रतिवेगा रतिप्रदा। आसीधा सुभगा भूषा धिषणाम्बुधिपारगा॥८६ यस्याः स्वरेण संक्षुब्धाः कोकिलाः खलु भास्वराः। श्यामला वनमामेजुर्निर्जितानामियं गतिः।। यत्पादपद्यमालोक्य त्रपापन्नानि सज्जलैः। संगं गतानि पद्मानि लज्जया जडसंगमः ॥८८ रचना की। वह नगरी बारा योजन लंबी थी ।। ७४-७६ ।। समुद्रमें चमकनेवाले रत्नोंसे बना हुआ तट था, उसने द्वारिका नगरीको घेरा था। उस तटको ऊंचे तोरण थे, बडे गोपुर थे और खाईसे वह युक्त थी। नगरीमें यदुवंशी राजे, उनके आप्तजन, राजसमूह, और श्रीमन्त लोक इनके लिये कुबेरने सुंदर घर बनवाये । नगरमें क्वचित्सरोवर, कचित् वापी, कचित् जिनमंदिर और कचित् लोगोंको एकत्र बैठनेका ऊंचा स्थान-सभागृह बनवाया। समुद्ररूपी खाईसे घिरी हुई, अनेक बड़े नगरद्वारोंसे युक्त, ऐसी द्वारिका नगरी स्वर्गपुरीके समान प्रसिद्ध हो गई ॥७७-८०॥ उस नगरीमें समुद्र विजयादिक सर्व यादवराजा कृष्णके साथ रहते थे । उस नगरीमें जयशाली, शत्रुवर्गसे अजिंक्य, जितेंद्रिय, मत्सरको जीतनेवाला, समुद्रविजय राजा सुखसे रहने लगा। वह निर्मल स्वभावका धारक, धार्मिक बुद्धियुक्त, विद्वान् और विद्वज्जनोंसे वन्दित था। वह धैर्यवान्, धर्मकर्मोमें-तत्पर, ऐश्वर्यशाली राजा था । वह भव्यात्मा भवहरण करनेवाले जिनेश्वरकी भक्ति करता था और भोगोंको भोगता था। वह पृथ्वीका स्वामी था, उसके अधीन जो भूतल प्रदेश था वह बहुत सुंदर था । उससे वह पूज्य राजा शोभता था ॥ ८१-८४ ॥ इस समुद्रविजय राजाकी रानी जगत्को आनंद देनेवाली, दानशील, चतुर, निर्मल बुद्धिको धारण करनेवाली शिवदेवी नामक थी। उसमें मदनने निवास किया था । वह रतिके वेगसे युक्त और रति देनेवाली थी । वह सुंदर अलंकारोंसे युक्त, बुद्धिसमुद्रके दूसरे किनारको पहुँच गई थी। जिसके स्वरसे क्षुब्ध होकर कोकिलायें स्वररहित होगई और वे काले रंगकी होकर बनमें चली गई । योग्यही है कि जो पराजित होते हैं उनकी ऐसीही गति होती है। जिस रानीके चरणकमलोंको देखकर लज्जित हुए कमल उत्तम जलोंकी संगति धारण करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy