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________________ एकादशं पर्व २१७ विश्रम्य कानिचित्तत्र दिनानि गतवांस्ततः। पुष्परम्ये वने तत्र विमदीकृत्य वारणम् ॥१९ चिक्रीड' स तमालोक्य क्रीडन्तं गजतः खगः। जहार विजयार्धाद्री नीतः स तेन तत्क्षणे॥ तत्र किंनरगीताख्ये पुरे चाशनिवेगतः। जातां पवनवेगायां सुतां स परिणीतवान् ॥२१ दिनानि कति चित्तत्र स्मरस्मारणतत्परः। तया स्थितं जहाराशु तं खगोऽङ्गारकः खलः॥२२ दत्तान्तशाल्मलिज्ञोत्वा हृतं तमसिपाणिका । अन्वियाय खगं वीक्ष्य सा तस्मादमुचद्यदुम् ॥ विद्यया पणेलध्व्यासो तया प्रहितया धृतः। चम्पापुरीसरोमध्ये पपात जिनमानसः॥२४ ततो निर्गत्य चम्पायां गतो गन्धर्वविद्यया। प्रसिद्धां श्रुतवान्कणे कन्यां गन्धर्वदत्तिकाम् ॥ प्राप्य गन्धर्वदत्तायाः स्वयंवरसुमण्डपम् । तत्र स्थितवती कन्यां कुमारो वीक्ष्य चागदीत् ॥२६ देहि वीणां च निर्दोषां सुतन्त्रीकां सुमानजाम् । यतस्ते वाञ्छितं वाद्यं वादयामि सुपण्डिते ।। तया तिस्रश्चतस्रश्च दत्ता वीणाः स निन्दयन् । प्राप्य घोषवतीं वीणां निर्दोषां वीक्ष्य संजगौ॥ संताड्य तां सुमानेन गेयं तद्वाञ्छितं जगौ। जित्वा तां चारुदत्तेन दत्तां सोऽप्यवृणोत्तदा॥ ॥ १७-१८॥ कुमारने वहां कुछ दिन विश्राम लिया। तदनंतर वहांसे निकलकर पुष्परम्य नामक वनमें गया, वहां उसने उन्मत्त हाथीको मदरहित कर वश किया। उसके साथ उसने क्रीडा की और उसके ऊपर बैठ गया तब किसी विद्याधरने आकर उसे उठा लिया और विजयार्द्ध पर्वतपर तत्काल ले गया ॥१९-२०॥ किन्नरगीत नगरमें अशनिवेग नामक विद्याधर राजा राज्य करता था, उसके रानीका नाम पवनवेगा था। उन दोनोंको श्यामा नामक कन्या थी उसके साथ उसका विवाह हो गया। कामसुखको भोगनेमें तत्पर कुमार उसके साथ कुछ दिन रहा। अङ्गारक नामक दुष्ट विद्याधरने उसके साथ बैठे हुए कुमारका हरण किया। शाल्मलिदत्ता कुमारको हरण किया हुआ जानकर हाथमें तरवार लेकर विद्याधरके पाछे दौडी उसको देखकर उससे उसने कुमारको छुडाया। भेजी गई पर्णलघ्वी विद्याके द्वारा धारण किया हुआ, जिनेश्वरको मनमें स्मरण करनेवाला वह वसुदेव चम्पापुरीके सरोवरके बीचमें पडा। उससे निकलकर वह चम्पापुरीमें गया। गंधर्वविद्यासे प्रसिद्ध हुई गंधर्वदत्ता नामक कन्याकी वार्ता उसके कानमें पडी तब वह गंधर्वदत्ताके स्वयंवर मंडपमें गया। उसमें खडी हुई कन्याको कुमारने देखकर कहा कि हे कन्ये निर्दोष, उत्तम तन्तुओं से बनी हुई और सुप्रमाणयुक्त वीणा मुझे दे जिससे हे सुपण्डिते, मैं तुझे जो रुचता है वह बजा कर सुनाऊंगा ॥ २१-२७ ॥ उसने-कन्याने तीनचार वीणायें वसुदेवको दी परंतु उसने उनमें दोष दिखाकर उनकी निन्दा की तब घोषवती नामक निर्दोष वीणा उसने दी। उसे लेकर यह वीणा निर्दोष है ऐसा उसने कहा । उसको बजाकर उसने उस कन्याको जो प्रिय था ऐसा गाना गाया। इस प्रकारसे कुमारने गंधर्वदत्ताको जीता, चारुदत्तने कुमारको वह दी और उसनेभी उसको वर लिया ॥२८-२९॥ इस प्रकार विद्याधर पर्वतपर- विजयार्धपर्वतपर विद्याधरोंकी सातसौ पां. २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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