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________________ २१० पाण्डवपुराणम् परिवारयुतो द्रोणो राजमान्यो विदांवरः। क द्रङ्गरङ्गसंभोगी संगतो वरया गिरा ॥२२० क किरातः कृपाहीनो देहिसंघातघातकः । पाकसत्त्वैः समं युद्धं कुर्वाणो दृश्यते जनैः॥ २२१ अनयोरो योगो दृश्यते पूर्वनस्थयोः। पूर्वापरसमुद्रस्थकीलिकाहलयोगवत् ।।२२२ विचिन्त्येति बभाणासौ किरातं पाण्डुनन्दनः। क दृष्टः स गुरु शिष्टो गरिष्ठः सुगुणैस्त्वया॥ सोऽवादीत्ककुभः सर्वा बधिरा जनयंस्त्वरा । अत्र स्तूपे लसद्रपे मया दृष्टो गुरुर्गुणी॥२२४ तं स्तूपं दर्शयामास पार्थस्य शबरोत्तमः। वदनितिविनीतात्मा विज्ञातगुरुगौरवम् ।।२२५ अयं स्तूपः पवित्रात्मा परमो गुरुसंश्रयात् । लोहधातुजेद्यद्वत्स्वर्णतां रसयोगतः ॥२२६ नंनमीमि नराधीश प्रबुद्धो गुरुसद्धिया। इमं प्रविपुलं स्तूपं पावनं पवनावृतम् ॥२२७ अस्य प्रसादतो लब्धा विद्या सा शब्दवेधिनी। मयेति मन्यमानोऽहं भजामीम खबुद्धितः॥ परोक्षं विनयं तन्वन् गुरोस्तस्याप्यहर्निशम् । आसे स्थिरमना स्थेयांचिन्तयन्वगुरोर्गुणान् ।। दृष्टेमं स्नेहसंयुक्तं चित्तं बोभूयते मम । गुरुवद्गणनातीतगुणस्य खगुरोः स्मरन् ॥२३० गुरुवत्पदविन्यासस्थानस्य सेवनं यके । कुर्वते ते लभन्तेज़ सुखसंदोहमुल्बणम् ॥२३१ आर विद्वच्छ्रेष्ठ हैं । नगरके रंगका उपभोग लेनेवाले, उत्तम वचन बोलनेवाले मेरे गुरु कहां ? और दयारहित, प्राणिसमूहका घात करनेवाला, हमेशा क्रूर प्राणिओंसे लडनेवाला यह भील कहां ? द्रोणाचार्य तो नगरमें रहते हैं और यह भिल्ल वनमें रहनेवाला है; जैसे पूर्वसमुद्र और पश्चिम-- समुद्रमें क्रमशः पडे हुए कील और हलका संयोग होना शक्य नहीं है वैसेही इन दोनोंका संबंध होना असंभव है ॥ २१८-२२२ ॥ इस प्रकारसे विचार कर पाण्डुनन्दनने-अर्जुनने ऐसा भाषण किया-वह सभ्य और सुगुणोंसे श्रेष्ठ गुरु तुमने कहां देखा ? सर्व दिशाओंको जल्दी बधिर करते हुए भीलने कहा कि हे महापुरुष, जिसकी आकृति सुंदर है ऐसे स्तूपपर मैंने गुणवान् गुरुको देखा । ऐसा कह कर उसे श्रेष्ठभीलने गुरुका माहात्म्य जिसने जाना है ऐसे अर्जुनको वह स्तूप दिखाया । यह स्तूप अतिशय पवित्र है क्यों कि गुरुने इसका आश्रय लिया है अर्थात् इस स्तूपमें मैंने गुरु का संकल्प किया है । अत: इसे मैं गुरु समझता हूं। इसके योगसे जैसा लोहधातु सुवर्ण बनता है वैसे गुरुके संपर्कसे यह स्तूप गुरु बना है । हे राजन् , इसे गुरु माननेस मैं चतुर हुआ हूं। इस विशाल पवित्र और वायुसे वेष्टित स्तूपको मैं बार बार वंदन करता हूं। इसके प्रसादसे मैंने शब्दवेधी विद्या प्राप्त की है ऐसा समझकर मैं अपनी बुदिसे इसकी उपासना करता हूं। उस गुरुका हमेशा परोक्ष विनय करनेवाला और उसके गुणोंका चिन्तन करता हुआ मैं स्थिरचित्त होकर यहां रहता हूं । गणनारहित गुणोंके धारक ऐसे गुरुका स्मरण करनेवाला मेरा मन गुरुके समान इसे देख स्नेह युक्त होता है। गुरुके पद जहां हैं ऐसा स्थान गुरुके समान समझकर जो मनुष्य उसका सेवन करता है वह इस जगतमें उत्तम सुखसमूह को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार उसका भाषण सुनकर शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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