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________________ २०४ पाण्डवपुराणम् अहो शिष्याः सुकर्तव्यं मद्वचो बहुविस्तरम् । धनुर्विद्याविधौं दीप्तं समस्तविधिपारगम् ॥१५४ कृपापारमितो द्रोणो धनुर्विद्याविशारदः। तद्वाक्यमषकांशु विचेलुः कौरवाः खयम् ॥१५५ पार्थः सार्थः समर्थस्तु तद्वाक्ये स्थितिमादधौ । गुरुवाक्ये रतानां हि विधाः स्युः करसंगताः।। ततो धनंजयस्याशु गुरुणा वर उत्तमः। अदायीति प्रदातव्या धनुर्विद्या हि ते मया ॥१५७ मत्समस्त्वं प्रकर्तव्यः शुद्धया चापविद्यया । गुरुणेत्युदिते तावत्पार्यः स्वस्खः सुसार्थकः ॥ धनुर्वेदरतः पार्थः परमाथेविशारदः। चचार चापचातुर्य तश्चिन्ताहृतिचेतनः ॥१५९ घने निशीथिनीकाले भक्तिमान्स धनंजयः। गुरावगणयन्दुःखं सिषेवे तत्पदाम्बुजम् ॥१६० तदान्यदा गुरु णः पाण्डवैः कौरवैः समम् । शिक्षयितुं धनुर्वेदं वनमाप सुशिष्यकान् ॥१६१ तत्रैकं तुङ्गशाखाढ्यं शाखिनं सुफलान्वितम् । सपलाशं खगाकीणे ददृशुस्ते महोद्धताः ॥१६२ शाखामध्यगतं वीक्ष्य द्रोणं काकं सुपक्षिणम् । द्रोणोऽवादीद्धनुर्वेदी पाण्डवान्कौरवान्प्रति ॥ यः पक्षिदक्षिणं चक्षुर्लक्षीकृत्य च विध्यति । स विद्वान्कार्मुकी दक्षो धनुर्वेदविदग्रणीः ॥१६४ हुए हैं ऐसे अर्जुन आदिकोंको द्रोणाचार्यने कहा, कि “ हे शिष्यों, धनुर्विद्याके विषयमें बहुविस्तार युक्त, उज्ज्वल और संपूर्ण विधि-उपायोंके किनारेपर पहुंचा हुआ अर्थात् और सर्व उपायोंसे परिपूर्ण ऐसा मेरा वचन तुम्हें अवश्य मान्य करना चाहिये । अर्थात् मैं जो जो बातें धनुर्विद्याके विष. यमें कहूंगा वे ध्यानमें रखने लायक हैं । द्रोणाचार्य कृपाके दुसरे किनारेको पहुंच गये हैं अर्थात् सर्पूण शिष्योंपर वे अत्यंत दयालु हैं, धनुर्विद्यामें निपुण हैं, ऐसा विश्वास रखकर शीघ्र उनके वाक्यानुसार कौरव चलने लगे ॥ १५३-१५५ ॥ धनुर्विद्याका प्रयोजन सिद्ध करनेकी इच्छा रखनेवाले समर्थ अर्जुनने द्रोणाचार्य के वाक्यमें स्थिरश्रद्वान किया। योग्य ही है, कि गुरुके उपदेशमें तत्पर रहनेवालोंके हाथमें विद्यायें स्वयं आकार ठहरती हैं । तदनंतर गुरुने मैं तुझे धनुर्विद्या देता हूं तू उसको ग्रहण करने में योग्य है ऐसा कहकर उत्तम वर दिया। मेरे समान मैं तुझे निर्दोष चापविद्यासे युक्त करूंगा, इसतरह गुरुने जब कहा तब उत्तम चित्तवाला पार्थ ( अर्जुन ) स्वस्थ हो गया। परमार्थमें निपुण, धनुर्वेदका अभ्यास करनेमें तत्पर और गुरुकी चिन्ता करनेमें आकृष्ट हुआ है मन जिसका ऐसे अर्जुनने धनुर्विद्याका चातुर्य धारण किया ॥ १५६-१५९ ॥ भक्तिमान् धनंजय दिन रात गुरुकी आराधना करता था। उसमें होनेवाले कष्टोंकी वह पर्वाह नहीं करता था । हमेशा गुरुके चरणकमलोंकी वह सेवा करता था ॥ १६० ॥ किसी समय द्रोणाचार्य पाण्डव कौरवोंको अपने साथ लेकर शिष्योंको धनुर्वेदका शिक्षण देनेके लिये वनमें आये । वहां ऊंची शाखाओंसे तथा पूर्ण फलोंसे लदा हुआ, पत्रोंसे पूर्ण और अनेक पक्षियोंसे युक्त वृक्षको उन शक्तिशालियोंने देखा। उस वृक्षकी एक शाखाके मध्यमें अच्छा द्रोणजातिका कौवा बैठा था उसे देखकर धनुर्वेदी द्रोणाचार्यने पाण्डव और कौरवोंको इस प्रकार कहा “ जो इस पक्षीके दक्षिण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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