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________________ नवमं पर्व १८१ केयूरकुण्डलोपेतो मुकुटाङ्गदभूषणः । सदंशुकधरः स्रग्वी समभूत्स घनद्युतिः ॥१४१ तदा कल्पद्रुमैर्मुक्ता पुष्पवृष्टिर्वरापतत् । तथा दुन्दुभयो मेणु दान्संरुद्धदिक्तटान् ॥१४२ सुगन्धः शीतलो वायुर्ववावम्बुकणान्किरन् । दिक्षु व्यापारयन्दृष्टिं ततोऽसौ वलितां दधौ । किमेतत्परमाश्चर्य कोऽस्मि के मां नमन्त्यहो। नरीनृतति का एता इत्यासीद्विस्मितः क्षणम् ॥ आयातोऽस्मि कुतः किं वा स्थानमेतत्प्रसीदति । मनो ममाश्रमः कोऽयं शय्यातलमिदं किमु॥ इति संध्यायतस्तस्यावधिबोधः समुद्ययौ । तेनाबुद्धामरः सर्वेक्षणात्पाण्ड्वादिवृत्तकम् ॥ . अये तपःफलं दिव्यमयं लोकोऽमरालयः । प्रणामिन इमे देवा विमानमिदमुनतम् ॥१४७ देव्यो मञ्जुगिरथैता मणिभूषणभूषिताः । एता अप्सरसः स्फारं स्फुरन्ति स्फुटनाटकाः ॥ गायन्ति कलगीतानि मन्द्रोऽयं मुरजध्वनिः । इति निश्चितवान्सर्वे भवप्रत्ययतोऽवधेः॥१४९ ततो नियोगिनो नम्रा अमर्त्या मौलिपाणयः । ते तं विज्ञप्तिमुनिद्राश्चरीक्रति कृतोन्नतिम् ॥ भजस्व प्रथम नाथ सज मञ्जनमुत्तमम् । ततोऽचर्चा श्रीजिनेन्द्राणां विधेहि विधिना बुध ॥१५१ मनुष्यके समान दीखने लगा। उसने केयूर और कुण्डल, मुकुट और बाजुबंद आदि भूषण तथा उत्तम वस्त्र और पुष्पहार धारण किए थे। वह देव विशाल कान्तिका धारक था। उस समय कल्पवृक्षोंके द्वारा छोडी हुई उत्तम पुष्पवृष्टि होने लगी। तथा दिशाओंके तट जिन्होंने व्याप्त किये हैं ऐसे भेरीयोंके शब्द होने लगे । सुगंधित, शीतल वायु जलकणोंकी वृष्टि करता हुआ बहने लगा। उस देवने चारोंतरफ देखा और बाद यह कैसी अद्भुत बात है ? मैं कौन हूं ? मुझे कौन नमस्कार कर रहे हैं ? ये कौन स्त्रियाँ पुनः पुनः नृत्य कर रहीं हैं ? ऐसे विचारसे क्षणपर्यंत आश्चर्यचकित हुआ। मैं कहांसे यहां आया हूं? अथवा यह कौनसा स्थान है ? मेरा मन आज क्यों प्रसन्न हो रहा है ? यह आश्रम कोनसा है और यह शय्यातल कौनसा है ? इस प्रकारसे विचार करनेवाले उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे उस देवको क्षणमें पाण्डुराजादिकका संपूर्ण वृत्तान्त ज्ञात हुआ ॥१३९-१४६॥ अहो यह दिव्य तपका फल है। यह लोक देवोंका निवासस्थान है। मुझे नमस्कार करनेवाले ये देव हैं। यह स्थान उन्नत-ऊंचा विमान है। ये मधुर भाषण करनेवाली स्त्रियाँ रत्नभूषणोंसे भूषित देवांगनायें हैं। स्पष्ट नृत्य करनेवाली ये अप्सरायें उत्साहयुक्त हैं और मधुर गाने गा रही हैं । यह मृदंगका ध्वनि गंभीर है । इसप्रकारसे उस देवने अवधिज्ञानसे स्वर्गका स्वरूप जाना ॥ १४७-१४९॥ तदनंतर विशिष्टकार्यके लिये नियुक्त सेवक देव अपने मस्तकपर हाथ जोडकर, जिसने पुण्यसे अपनी उन्नति की है ऐसे उस महर्द्धिक देवको प्रफुल्ल मनसे विज्ञप्ति करने लगे। वे नियोगी देव स्वर्गीय आचारोंका उपदेश इसप्रकार करने लगे। हे नाथ, स्नानकी यह उत्तम तयारी है। आप प्रथम स्नान कीजिए। तदनन्तर हे बुद्धिमन् , विधिपूर्वक जिनेन्द्रकी पूजा कीजिए। इसके अनन्तर यह हर्षयुक्त देवसैन्य देख लीजिये और जिसके ऊपर ध्वज हैं ऐसा प्रेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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