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________________ पाण्डवपुराणम् भूभारं भरतो मुक्त्वा जित्वा जेयाञ्जयोद्धरः । कालेन कलितः सोऽपि कालोऽयं बलवानिह ॥ जयो जयञ्जनान्युक्त्या मेघेश्वरसुरानपि । सोपि कालकलातीतो मुक्त्वा प्राणाशिवं ययौ ॥ कुरुः कवलयन्सर्व कुरुवंशनभोमणिः । कवलीकृत्य कालेन कलितः सोऽपि कर्मणा ।। ११२ संसरन्तः सदा सन्तः संसारेऽसातसागरे । सनातना न दृश्यन्तेऽप्येवं शोकेन तत्र किम् ।। के के गता न संभुज्य भुवं भोगहताशयाः। कास्था ममात्र भोगादौ निःशेषविगतायुषः ॥ इन्दिरामन्दिराण्यत्र सुन्दराणि सुदन्तिनः । सुदत्य इन्दुवदनाश्चन्दनादीनि वीतयः ॥११५ सर्वमेतद्विनिश्चयं निश्चयेन चलात्मकम् । कात्र स्थितमतिः प्रातस्तृणाग्रलमबिन्दुवत् ॥११६ एवं संबोध्य बोधात्मा बुद्धः संशुद्धमानसः । बुधांस्तान्संदधे धर्मे बुद्धिं धीधनवर्धितः॥११७ जिनपूजनसंसक्तस्ततः श्रीजिनपुङ्गवान् । पाण्डुः संपूजयामास भक्तिनिर्भरमानसः ॥११८ अष्टधार्चनमादायापूजयत्पापभीतधीः । जिनान्संगीतनृत्यायैः कृत्वा क्षणभरं क्षणात् ॥११९ जीते, परंतु वह भी कालसे ग्रस्त हुआ। इस भूमंडलपर काल बलवान है। जयकुमारने शत्रु ओंको तो जीताही परंतु मेघेश्वरदेवोंको भी उसने वश किया था। परंतु वह भी कालकी कलासे उल्लंधित हुआ। अर्थात् प्राण छोडकर मुक्त हुआ। संपूर्ण कुरुजांगल देशको अपने अधीन रखनेवाला, कुरुवंशरूपी आकाशको भूषित करनेवाला मानो सूर्य ऐसा जो कुरुराजा वह भी कर्मरूप कालका ग्रास बन गया है। दुःखसागररूप संसारमें नित्य घूमनेवाले सज्जन चिरकाल इस भूलोकमें वास्तव्य नहीं करते हैं। जब ऐसा वस्तुका स्वरूपही है, तो इस विषयमें शोक करना निष्प्रयोजन है। भोगमें लुब्ध होनेसे जिनके परिणाम मालिन हुए हैं अथवा भोगोंसे जिनकी बुद्धि मारी गयी है ऐसे कौन कौन राजा पृथ्वीका उपभोग लेकर नष्ट नहीं हुए हैं ? मेरा आयुष्य संपूर्ण नष्ट हो चुका है अब इहलोकके भोगोंमें मेरी कुछ आस्था-अभिलाषा नहीं रही है। इस मेरी राजधानीमें लक्ष्मीके निवासस्थान ऐसे अनेक महल हैं। अनेक अच्छे हाथी हैं । अनेक चंद्रमुखी स्त्रियाँ, चन्दनादिक सुगंधित पदाथ, उत्तम घोडे, सब कुछ हैं लेकिन यह सब वैभव निश्चयसे चंचल है, नष्ट होनेवाला है । यह स्थिर है ऐसी भावनाही अज्ञान है। यह सब प्रातःकालमें तृणाग्रमें स्थित जलबिन्दुके समान है ॥ ११०-११६॥ बुद्ध-विरक्त निर्मल हृदयी, बुद्धिरूपी धन जिसका बढ़ गया है ऐसे पाण्डुराजाने इस प्रकारका उपदेश देकर धृतराष्ट्रादिकोंको धर्ममें स्थिर किया ॥ ११७॥ तदनंतर भक्तिमें अतिशय तत्परचित्त, जिनपूजनमें तल्लीन पाण्डुराजाने जिनेश्वरकी पूजा की। पापोंसे भययुक्त बुद्धिवाले पाण्डुराजाने अष्टप्रकारका पूजनद्रव्य लेकर संगीत नृत्यादिकोंसे आनंदित होकर कुछ कालतक जिनेश्वरकी पूजा की। चार प्रकारके दान देने में तत्पर पाण्डुराजाने साधर्मिक लोगोंको धन दिया। सर्वप्रकारसे सब लोगोंको उसने सन्तुष्ट किया । इसप्रकार वह भवविनाश करनेवाला हुआ। उसने उस समय अपने धर्म आदिक पांच पुत्रोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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