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________________ १७५ नवमं पर्व ईवृक्षस्तु क्षितीशेन वीक्षितः क्षणदाक्षये। पूषेव पुष्टिमातेन धराक्षिप्तास्त्रकेन च ॥७७ चतुर्विधेन संघेन युक्तस्य च महामुनेः । पादपचं ननामाशु प्रचण्डः पाण्डुपण्डितः ॥७८ धर्मवृद्धयाशिषाशास्य संयमी नृपसत्तमम् । धराधीशं धरायां च निविष्टं पुरतो जगौ॥७९ राजन्संसारकान्तारे संसरन्ति शरीरिणः । न लभन्ते स्थिति कापि परां पयोरघडवत् ॥८० वृषो वृषार्थिभिः सेव्यः स तत्र द्विविधो मतः। अनगारसुसागारभेदेन भवभङ्गकृत् ।।८१ महाव्रतानि पञ्चव गुप्तयस्त्रिविधाः स्मृताः । सत्यः समितयः पञ्च यतिधर्म इति स्फुटम् ।।८२ प्राणिनां तत्र षण्णां च रक्षणं मनसा तथा। वचसा वपुषाख्यातं प्रथम स्यान्महानतम् ॥८३ असत्यं वचनं कापि न वक्तव्यं शुभार्थिभिः। हितं मितं च द्वितीयं वक्तव्यं स्यान्महाव्रतम्॥८५ अदत्तं परकीयं च न ग्राह्य वस्तु सद्धिया। तृतीयव्रतयुक्तेन यतोऽनर्थः परार्थतः ।।८५ देवमानुषसंतिर्यकृत्रिमाश्च स्त्रियो मताः। चतुर्धातो निवृत्तिर्या चतुर्थ तन्महाव्रतम् ॥८६ दशवायोपधेश्चान्तश्चतुर्दशपरिग्रहात् । निवृत्तिः क्रियते या तत्पश्चमं स्यान्महाव्रतम् ।।८७ रौद्रात्तेसुरताहारपरलोकविकल्पनम् । यच्चेतसि न चिन्त्येत मनोगुप्तिस्तु सा मता ॥८८ युक्त थे। वे मुनिराज सूर्यके समान तेजस्वी थे। उनके साथ चार प्रकारका संघ था। जिसने शस्त्रका त्याग किया है ऐसे पुष्ठ शरीरके राजाने सूर्योदयके समय उन मुनिराजको देखा । उनके पास जाकर प्रचण्ड पाण्डुपण्डितने उनको वन्दन किया ॥७०-७८॥ राजाओंमें श्रेष्ठ, पृथ्वीके अधिपति, अपने आगे बैठे हुए राजाको संयमी सुक्त मुनीश्वरने 'धर्मवृद्धिर्भवतु ' ऐसा आशीर्वाद दिया और इसप्रकारका धर्मोपदेश देने लगे ॥ ७९ ॥ हे राजन् इस संसारवनमें प्राणी हमेशा भ्रमण करते हैं घटीयन्त्रके समान वे कहींभी स्थिर नहीं रहते हैं ॥ ८०॥ धर्मका पालन करनेकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको धर्मका सेवन करना चाहिये, धर्मके अनगार धर्म और सागार धर्म ऐसे दो भेद हैं। वे दोनों संसारके नाशक हैं । यतिधर्म तेरह प्रकारका है-पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इनका पालन करना यतिधर्मका स्वरूप है ॥ ८१-८२ ॥ मनसे, वचनसे और शरीरसे षट्काय जीवोंका रक्षण करना पहिला अहिंसा नामक महाव्रत है । हितेच्छु मुनि असत्यवचन कदापि नहीं बोलते हैं। हमेशा हितकर और अल्प भाषण करते हैं यह उनका दूसरा सत्यनामक महावत है। शुभबुद्धिसे न दी हुई दूसरेकी वस्तु नहीं लेना यह तीसरा अचौर्य महाव्रत है । दूसरेकी वस्तु लेनेसे राजदण्ड, सर्वस्वहरणादि अनेक अनर्थ होते हैं । देवांगना, मनुष्यस्त्रियाँ, पशुस्त्रियाँ और कृत्रिम स्त्रियाँ अर्थात् स्त्रियोंके चित्र इन चारप्रकारकी स्त्रियोंसे पूर्ण विरक्त होना ब्रह्मचर्य महावत है। बाह्यपरिग्रह दश प्रकारका है और अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकारका है। ऐसे चोवीस प्रकारके परिग्रहोंसे विरक्त होना पांचवा परिग्रहत्याग नामक महाव्रत है ।। ८३-८७ ॥ रौद्रध्यान, आर्तध्यान, मैथुनसेवन, आहारकी अभिलाषा इहलोक और परलोकके सुखोंकी चिन्ता इत्यादि विकल्पनाओंका त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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