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________________ अष्टमं पर्व १५१ महीरुहा महाच्छायाः सफलाः पल्लवादिनः । प्राघूयं कुर्वते तेऽद्य भवन्तो वा समुन्नताः ॥४९ कोलं पश्य महापङ्कमग्नं मलकुलाविलम् । तमोमूर्ति बनान्तस्थं विपक्षमिव तेऽधुना ॥५०॥ एवं पश्यन्कुमारोऽसौ मार्गान्स्वर्गानिवापरान् । सबुधान्सविमानान्सतिलोत्तमांश्चचाल सः॥ आगच्छन्तं परिज्ञाय कौरवं यादवेश्वरः । सन्मुखं सन्मुखीभूतविधिर्वेगात्समागमत् ॥५२॥ अथ तौ च समाश्लिष्य मिलितौ नम्रमस्तकौ । कुशलालापसंबद्धौ चेलतुः स्वां पुरीं प्रति ॥ या तोरणमहापादा नम्रकेतुसुबाहुका | नटन्तीव महानाट्या मातरिश्वनटाहता ॥५४॥ शातकुम्भमहाकुम्भशुम्भच्छोभाभिराजिता । कचिम्मङ्गलसद्गीतिपूर्णपूर्णस्तनी वरा ॥५५॥ रङ्गरकावलीपूर्णस्वस्तिका च क्वचित्कचित् । स्वस्तिसंपूर्णसत्तूर्णनरराजविराजिता ॥५६॥ याह्वयन्तीव भूपालान्प्रासादोद्भतसव्वैः । गायन्तीव सदा गानं कामिनीगीतसंगमात् ॥५७ हसन्तीव सदा नाकं द्वारबद्धसुमाल्यकैः । चन्द्रकान्तोपला यत्राकाण्डे चन्द्रांशुपीडिताः ।। अतिशय तुङ्ग हैं । आपके समानही वृक्ष होनेसे वे आपका आज मानो अतिथिसत्कार कर रहे हैं। हे मित्र, इस वनमें ये वनसूकर महापङ्कमन-विपुल कीचडमें बैठे हैं। और मलकुलाविल-और गलसे भरे हुए हैं, अंधकारके समान काली आकृतिको धारण करनेवाले हैं मानो आपके शत्रुके समान दीखते हैं। क्योंकि आपके शत्रुभी महापङ्कमग्न-महापापसे संयुक्त हैं, मलकुलाविल-मलसे जमीनके धूलसे व्याप्त-भरे हुए हैं, तमोमूर्ति अंधकारके समान काले हैं। इस प्रकार कुमार पाण्डु सबुध, सविमान, सतिलोत्तम मार्गोंको देखता हुआ प्रयाण करने लगा। मार्ग 'सविबुधः' विद्वानोंसे भरा हुआ था। सत्रिमान' घरोंसहित था। ' सतिलोत्तम' उत्तम तिलोंके खेतोंसे सहित था और स्वर्गभी — सविबुध ' देवों से युक्त, 'सविमान ' विमानसहित तथा 'सतिलोत्तम' तिलोत्तमा नामक अप्सरासे युक्त होता है ॥ ४६-५१ ॥ जिसका भाग्य सन्मुख हुआ है ऐसा यादवेश्वर-अंधकवृष्टि राजाभी कौरव-कुरुवंशोत्पन्न पाण्डुराजाको आते हुए देखकर उसके सन्मुख बडे वेगसे चला गया । पाण्डुराजा और यादवेश्वर अंधकवृष्टि दोनोंने समीप आकर नम्र मस्तक होकर अन्योन्यको आलिंगन दिया। तदनंतर कुशल वार्तालाप करते हुए अपनी नगरीके प्रति-शौरी नगरीके प्रति चलने लगे ।। ५२ - ५३ ॥ (शौरीपुरीका वर्णन । ] यह शौरीपुरी बहिाररूपी बड़े पैरोंको धारण करती थी। नम्र ध्वजरूपी बाहुओंको उसने धारण किया था। वायुरूपी नटसे सत्कारको प्राप्त होकर मानो महानृत्य कर रही थी। सुवर्णके महाकुंभोंकी चमकनेवाली कान्तिसे सुंदर दीखनेवाली वह नगरी मानो पूर्ण पुष्ट स्तनोंको धारण करनेवाली स्त्रीही दीखती थी। कचित् स्थानमें मंगलगायनसे परिपूर्ण थी, इस नगरीमें कचित् स्थानमें नाना रंगावलियोंसे पूर्ण स्वस्तिक थे । यह नगरी स्वस्तिसंपूर्णकल्याणपरिपूर्ण ऐसे नरश्रेष्ठोंसे कचिःस्थानमें पूर्ण भरी हुई थी। यह नगरी प्रासादोंमें-महलोंमें उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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