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________________ सप्तमं पर्व १३५ सोवादीद्वेदनाविष्टो मदनस्य तु कामिनि । त्वन्नामाक्षरसन्मन्त्राकृष्टोत्रागतवानहम् ॥१९२ कामाज्ञालङ्घनाद्भीर भीतिभिद्यते मनः। तभीत्या मरणावाप्तिः कामिनां पीडितात्मनाम् ।। मद्वचो हृदये धत्स्व त्रपावली च कर्तय । लोकापवादतो भीता मा भूर्भूतार्थवेदिनी ॥१९४ कामदन्तावलः काममुन्मदिष्णुर्मदोद्धतः । सन्नीतिदन्तिपातारमुल्लध्य स्वेच्छया व्रजेत् ॥ तावत्त्रपालता लोके तावद्धर्ममहीरुहः । तावच्छास्त्रज्ञता यावत्कामदन्ती न कुप्यति ॥१९६ 'स्वदेहं देहि वा हस्ते मृत्युं मे सुकरे कुरु । वदने वदनं धत्स्व कामिनामीदृशी गतिः ॥१९७ मनो देहि वचो देहि देहं देहि दयानिधे । दत्तं विना न संतुष्टिर्यतोऽर्थी दानतः सुखी ।। यदीत्थं रोचते तुभ्यं माररोचिष्णुसन्मते । मदनोन्मादनक्रीडां कुरु क्रीडाक्रियोद्यते ॥१९९ दातारं प्रति कामार्थी याति दाता तदर्थिने । दत्ते यतः कृती याच्याभो न शोभते भुवि।। धूर्णिते घूर्णनं मुक्त्वा प्राघूर्णकविधि भज । प्राघूर्णकोऽस्म्यहं देवि याच्आभङ्ग विधेहि मा ।। आकर्णाभ्यर्णमर्यादं मारश्चापं च ताडयेत् । पञ्चबाणैर्नरं नारी संताड्य ताडनोद्यतः ॥२०२ आप बोले ' ॥ १९०-९१ ॥ पाण्डुराजा बोला 'हे कामिनी, मैं मदनकी वेदनासे दुःखित हुआ हूं। हे कुन्ती, तुह्मारे नामाक्षररूपी मंत्रसे आकृष्ट होकर यहां आया हूं। कामाज्ञाके उल्लङ्घनसे मुझे भय होता है । भयसे मेरा मन टूट रहा है और कामपीडासे पीडित हुए कामिजनोंको भीतिसे मरणप्राप्ति होती है । हे कुन्ती, तू मेरा वचन मनमें धारण कर, और लज्जावल्लीको जडसे उखाड दे । सत्य परिस्थितिको तू जानती है; अतः लोकापवादसे डरनेकी कोई बातही नहीं है। हे कुन्ती, कामरूपी हाथी अतिशय मदयुक्त होकर मदसे उद्धत हुआ है । वह समीचीन नीतिरूपी महावतको उल्लंघकर स्वच्छन्दतासे प्रवृत्ति करेगा। जगतमें तबतकही लज्जालता स्थिर रहती है और तबतकही धर्मवृक्ष भी। लोक तबतकही शास्त्रोंकी बातें करते हैं, जबतक कामरूपी हाथी कुपित नहीं होता है । अब तू अपना देह मेरे हाथमें दें अथवा मेरा मृत्यु तू अपने हाथमें ले । मेरे मुखमें तेरा मुख कर अर्थात् तू मुझे चुम्बन दे । क्योंकि कामियोंकी गति ऐसीही हुआ करती है । हे दयानिधे कुन्ती, तू मुझे मन दे, वचन दे और स्वदेहदान भी कर । दिये बिना संतोष नहीं होता क्योंकि याचकको दान मिलनेसे सुख होता है अन्यथा नहीं। काममें रुचि करनेवाली, सुबुद्धिमति कुन्ती, यदि तुझे इसप्रकार मेरा कहना मान्य हो, तो क्रीडामें उद्यत रहनेवाली तू मदनका उन्माद उत्पन्न करनेवाली क्रीडा कर । हे कुन्ती मनोभीष्टवस्तुका इच्छुक याचक दाताके पास जाता है, और वह दाता याचकको इच्छित वस्तु देता है। क्योंकि याचनाभंग करना शोभा नहीं पाता । हे आलस्ययुक्ते, तू आलस्य छोडकर मेरा आतिथ्य कर । मैं तेरा अतिथि होकर आया हूं। हे देवि, मेरी याचनाका भंग मत कर । देखो, वह मदन अपने कानोंतक धनुष्य खीचकर अपने पांच बाणोंसे स्त्रीपुरुषोंको ताडनकर फिर भी ताडन करनेमें उद्युक्त हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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