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________________ सप्तमं पर्व भूपस्तद्रूपसंसक्तः पाण्डुराखण्डलोपमः। न मेने मानसे श्रीमान् कामः स्वास्थ्यं रति विना।। पाण्डः पाण्डुत्वमापनस्तां स्मरन्मानसे महान् । ज्वरीव विह्वलो वेगवानभूभृतवेशवत्॥१५४ तद्वियोगाशनिध्वस्तः शालवद्ध्वंससन्मुखः। पाण्डुराजो रराजासौ न भस्मवञ्च पाण्डुरः।। अन्यदा पाण्डुरः पाण्डुर्वने रन्तुं लतागृहे । प्राप्योपहारशय्यात्ये मुद्रिका दृष्टवान्गतः।।१५६ अगृह्णान्मुद्रिका यावत्तावत्कश्चित्खगेश्वरः। पश्यनितस्ततोऽयासीत्पाण्दुस्तं पृष्टवानिति ॥१५७ किं विलोक्यं त्वयालोक्य कल्पते लोककल्पन। तदेति खेचरोज्वोचल्लोकिता मुद्रिका मया ।। प्रदर्य पाण्डुना सापि बभाषे खेचराधिपम् । भवतां महतां मान्य मुद्रिकावीक्षणं किमु ॥१५९ अनु चात्र खगाधीश मुद्रिका विस्मृता कथम् । अलीलपद्वियमचारी विचारचतुरेक्षणः॥१६० विजयार्धधरावासी वज्रमाली वियचरः। प्रियासखः सुखं रन्तुमत्रायासं वने घने ॥१६१ [पाण्डुराजाको विद्याधरने अंगुठी दी] इन्द्र के समान वैभववाला पाण्डुराजा कुन्तीके रूपमें आसक्त हुआ था । जैसे मदन रतिके विना अपनेको सुखी नहीं समझता है, वैसे पाण्डु राजा कुन्तीके बिना मनमें अपनेको सुखी नहीं समझता था । अर्थात् कुन्तीकी अप्राप्तिसे वह मनमें दुःखी था । हमेशा मनमें कुन्तीका विचार करनेवाला पाण्डुराजा अधिक पाण्डु हो गया- शुभ्र हो गया, अर्थात् कुन्तीके विचारसे वह अशक्त हो गया और उसकी अंगकान्ति पूर्वसे भी अधिक फीकी हो गई । ज्वरयुक्त मनुष्यके समान वह कुन्तीके बिना विह्वल हो गया तथा पिशाचग्रस्त मनुष्यके समान वेगवान चंचलचित्त हो गया । कुन्तीके वियोगरूपीवज्रके द्वारा जैसे वज्रपातसे वृक्ष सूखता है वैसा वह राजा सूख गया । उस समय भस्मके समान पाण्डुरवर्णका धारक पाण्डु राजा शोभाहीन हुआ। ॥ १५३ -१५५ ॥ एक दिन वनमें क्रीडा करनेके लिये गये हुए शुभ्र कान्तिके धारक पाण्डुराजाने वहां पुष्पोंकी शय्यासे युक्त लतागृहमें पडी हुई मुद्रिका देखी । उसने वह अंगुठी लेली । इतने में इतस्ततः दृष्टिपात करनेवाला कोई विद्याधर वहां आया । उसे पाण्डुने पूछा, कि हे लोकपूज्य, देखने योग्य ऐसी कौनसी वस्तु आप देख रहे हैं, आप क्या कर रहे हैं अर्थात् आप क्या ढूंढ रहे हो, उस समय विद्याधरने कहा कि मैं मुद्रिका खोज रहा हूं । पाण्डु राजाने विद्याधरको अंगुठी दिखाई और पूछा ' हे मान्य सज्जन क्या आप अपनी अंगुठी देखनेके लिये आये हैं ? हे विद्याधरेश आप अंगुठीको कैसे भूल गये ?' विचारचतुर आंखवाले आकाशगामी विद्याधरने इस प्रकार उत्तर दिया । ' हे मित्र, मैं विजयाई पर्वतपर रहनेवाला वज्रमाली नामक विद्याधर हूं। मैं अपनी प्रियाके साथ इस निबिडवनमें सुखसे क्रीडा करनेके लिये आया था । यहां क्रीडा करके कार्यान्तरसे व्याकुलचित्त होकर जाते समय मेरे हाथसे अंगुठी गिर पडी। उसे 1 स म ग रति मारो रतिं विना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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