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________________ पाण्डवपुराणम् भूपतेर्भयमुत्पन्नं किंचित्तदपि निर्गतम् । इदानीं कुशलालापी कश्चिदायास्यति स्फुटम् ।।१६४ वस्था भवत भीति मा यातेति संजगौ गिरा । स्वयंप्रभादयस्तुष्टा यावत्तिष्ठन्ति तद्गिरा ।। तावता नभसो दीपशिखः संभूष्य भूतलम् । स्वयंप्रभा प्रणम्यासौ सुतस्साचीकथकथाम् ॥ क्षेमी श्रीविजयो भीतिभवनिर्मुच्यतामिति । तद्वृत्तं सर्वमाख्यातं सुताराहरणादिजम् ॥१६७ तदाकर्णनमात्रेण दावदग्धलतोपमा । निर्वाणासक्तदीपस्य विगतामा शिखा यथा ॥ १६८ . धनध्वानश्रुतेहंसी शोकिनीव स्वयंप्रभा । तदानीं निर्गता रङ्गचतुरङ्गबलोद्धता ॥ १६९ सखगा ससुता याता वनं तां वीक्ष्य दूरतः । आयान्ती स समागत्यानमत्सानुजमातरम् ॥ सा सदुःखेति संवीक्ष्य प्रोवाचोत्तिष्ठ पत्तनम् । यावः श्रीविजयाद्यास्ते संययुः स्वपुरं तदा ॥ तत्र पुत्रं सुखासीनं सुताराहरणादिकम् । सापृच्छत्सोऽब्रवीन्मातः संभिन्नाख्यः खगोऽप्ययम्।। उपकारकरो धीमान्सेवकोऽमिततेजसः । अनेन यत्कृतं तत्को गदितुं भुवि संक्षमः ॥ १७३ मात्रा समं सुसंमन्व्यानुजं पोदनरक्षणे । मुक्त्वा ययौ विमानेन नगरं रथनूपुरम् ॥१७४ ज्ञात्वाथामिततेजाश्च स्वसारं ससुतां पितुः । गत्वा संमुखमानीयास्थापयत्स्वपुरे स्थिरम् ॥ जयगुप्तको पूछा-उन्होंने ऐसा खुलासा किया-राजाके ऊपर थोडासा सकट आया था; परंतु वह नष्ट भी हुआ है और अब कुशलवार्ता कहनेवाला कोई मनुष्य निश्चयसे आवेगा। आप लोग स्वस्थ रहें, डरनेकी कोई बात नहीं है।" तब स्वयंप्रभादिक राजजन स्वस्थ हुए। इतनेमें आकाशसे दिपशिख भूमिपर आया। स्वयंप्रभाको प्रणाम कर उसने श्रीविजयकी कथा उनको कही । श्रीविजय महाराज कुशल हैं। आप भीतिका त्याग करें। अनंतर सुताराहरणादिका सर्व वृन्तात उसने कहा । वृत्तके सुनने मात्रसेही स्वयंप्रभा- राजमाता अग्निसे दग्धलताके समान मुरझा गई। अथवा बुझते दीपकी कान्तिहीन शिखाके समान हुई । किंवा मेवकी गर्जना सुनकर शोक करनेवाली हंसीके समान हो गई । उससमय अपना छोटा पुत्र, विद्याधर और चतुरंगबल साथ लेकर ज्योतिवनको वह राजमाता गई। दूरसे छोटे भाईके साथ आती हुई अपनी माताको देखकर राजाने समीप आकर नमस्कार किया ॥ १६३–१७० ॥ दुःखाकुल माताने पुत्रको देखा और कहा हे पुत्र, उठो अब अपनी राजधानीके प्रति चलो तब श्रीविजयादिक अपने नगरके प्रति चले गये ॥१७१॥ अपने प्रासादमें सुखसे बैठे हुए अपने पुत्रको स्वयंप्रभाने सुताराहरणादिक कथा पूछी । पुत्रने कहा " हे माता यह संभिन्न विद्याधरभी अमिततेज राजाका उपकार करनेवाला बुद्धिमान सेवक है। इसने जो उपकारकार्य किया है उसका वर्णन करनेवाला इस भूतलपर कोई नहीं मिलेगा ॥१७२-१७३।। . स्वयंप्रभाका रथनूपुरमें आगमन ] माताके साथ सलाहमसलत करके अपने छोटे भाईको पोदनपुरके रक्षणकार्यमें नियुक्त कर विमानके द्वारा राजाने रथनूपुरके प्रति प्रयाण किया ॥१७४।। अपने पिताकी बहन स्वयंप्रभा अपने पुत्र के साथ आ रही है, यह जानकर अमिततेज सम्मुख गया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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