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________________ पाण्डवपुराणम् पतिष्यति महावज्रमुपायस्तत्र चिन्त्यताम् । इत्याकर्ण्य तदा प्राह युवराजो महाकुधा ॥९९ पतिता तव शीर्षे किं वद कोविद वै तदा । श्रुत्वावादीनिमित्तज्ञ इति भूपेश मूर्धनि ॥१०० पतिता रत्नवृष्टि, महाभिषेकपूर्वकम् । साहंकारं निशम्यैतत्स राजा विस्मयी जगौ ॥१०१ भद्रात्र स्थीयतां तावच्छणु त्वं किंचिदुच्यते । किंगुरुः ख्याहि किंगोत्रः किंशास्त्रः किंनिमित्तकः।। किमाख्यः किंनिमिचोऽयमादेशः कथ्यतामिति । स जगौ कुण्डले द्रङ्गे राजा सिंहरथो महान्।। पुरोधाः सुरगुर्वाख्यः शिष्यस्तस्स विशारदः । तदन्तेवासिना दीक्षां गृहीत्वा हलिना समम्।। मयाष्टाङ्गनिमित्तान्यधीतानि च श्रुतानि च । तानि कानीति संप्रश्नेऽन्तरीक्षं भौममङ्गगम्।।१०५ लक्षणं व्यञ्जनं छिन्नं स्वरः स्वमोऽष्टधेति च । तल्लक्षणानि भेदांश्च प्रोच्याह क्षुत्तृषाकुलः।।१०६ मुक्तदीक्षः सदादुःखी पद्मिनीखेटमाययौ । मातुलस्तत्र मे सोमशर्मा चन्द्राननां सुताम्।।१०७ हिरण्यलोमासंजातां तस्याहं परिणीतवान् । वित्तोपार्जनमुन्मुच्य निमित्ताभ्यासरञ्जितः ॥१०८ मां निरीक्ष्य प्रिया खिन्ना तातदत्तवसुक्षयात् । भोजनावसरेऽन्येद्युर्वित्तमेतत्वयार्जिनम् ॥१०९ मस्तकपर तब महाभिषेकपूवक रत्नोंकी वर्षा होगी। निमित्तज्ञका यह अहंकारयुक्त भाषण सुनकर आश्चर्ययुक्त होकर युवराज उसके साथ इस प्रकारसे बोलने लगा । हे भद्र, यहां बैठो और मैं कुछ प्रश्न पूछता हूं सुनो, तुझारा गुरु कौन है, तुह्मारा गोत्र कौनसा, तुमने कौनसे शास्त्रोंका अध्ययन किया है, किस निमित्तसे तुम यहां आये हो, तुह्मारा नाम क्या है, तुमने यह आदेश किस प्रयोजनसे दिया है ? इन सब बातोंका खुलासा करो ॥ ९६-१०२ ॥ वह विद्वान् इस प्रकार कहने लगा। कुण्डलपुरमें महापराक्रमी सिंहरथ राजा राज्य करता है । उस राजाका सुरगुरु नामका पुरोहित है । उसके शिष्यका नाम विशारद है। मैं विशारद गुरुका शिष्य हूं। मैने विजयबलभद्रके साथ दीक्षा ली और अष्टाङ्गनिमित्तोंका अध्ययन किया और सुने भी । वे कौनसे इस तरहका प्रश्न करनेपर उसने कहा। अन्तरिक्ष, भौम, अंग, लक्षण, व्यञ्जन, छिन्न, खर और स्वप्न ये अष्टाङ्गनिमित्त हैं । इनके लक्षण और उनके भेद कह कर पुनः वह विद्वान् युवराजको इस प्रकार कहने लगा । हे युवराज, मैने भूख और प्याससे पीडेित होकर दीक्षा छोड दी । मैं दरिद्री होनेसे मुझे हमेशा दुःख भोगना पडा। मैं तदनंतर पद्मिनीखेटको आया। वहां मेरे सोमशर्मा नामके मामा रहते थे। उनकी पत्नीका नाम हिरण्यलोमा था । उन दोनोंकी चन्द्रानना नामकी कन्या थी उसके साथ मेरा विवाह हुआ। मैंने धन कमाना छोड़ दिया और अष्टांग - निमित्तोंके अभ्यासमें अनुरक्त हुआ । पत्नीके पिताने दिया हुआ धन खर्च होनेसे मुझे देखकर वह खिन्न हो गई । और एक दिन भोजनके समय 'यह तुलारा कमाया हुआ धन है ऐसा कहकर क्रोधसे मेरे पात्रमें पत्नीने मेरी सब कौडिया फेंक दी। सूर्यकी किरणोंका सान्निध्य पाकर वह स्फटिकका पात्र रंजित होगया। उसके उपर मेरी स्त्रीने हाथ धोनेकी पानीकी धारा छोड दी । मैने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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