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________________ पाण्डवपुराणम् विनाशो विश्वविघ्नानां जिनादिति ववन्दिरे । संपूज्य स्तुतिभिः स्तुत्वा जिनं ते स्वस्थितिं गताः।। विद्याधरधराधीशान् विपाशीकृत्य कृत्यवित् । विश्वान्विश्वासयामास तद्योग्यैः समुदीरितैः।।१२८ अकम्पनजयौ नत्वा कुमारं विहितस्तुती । अभाषेतां भृशं भक्त्या भव्यौ भद्र मनोरथौ।।१२९ अस्मद्वंशौ च युष्माभिर्विहितौ वर्धितौ सदा। न यास्यतः क्षयं त्वत्तो यतो वः सेवका वयम् ।। सुतबन्धुपदातीनामपराधशतान्यपि । महात्मानः क्षमन्ते हि तेषां तद्धि विभूषणम् ।। १३१ अपराधः कृतोऽस्माभिरेकोऽयमविवकिभिः । बन्धुभृत्या वयं वस्तत्कुमार क्षन्तुमर्हसि ॥१३२ सुलोचनेति का वार्ता सर्वस्वं नस्तवैव तत् । चेन्निषिद्धस्त्वया पूर्व क्रियते किं स्वयंवरः।।१३३ त्वमग्गिनेव केनापि पापिना विश्वजीवकः। उष्णीकृतोऽसि प्रत्यस्मा शीतीभव सुवारिवत्।।१३४ इति प्रसाद्य संतोष्य समारोप्य महाद्विपम् । अर्ककीति पुरस्कृत्य भेजे खेचरभूचरैः ॥१३५ सर्वार्थसंपदं दत्त्वाक्षमालामर्ककीर्तये । स तं विसर्जयामास लक्ष्मीमत्यपराभिधाम् ॥१३६ अपरांश्च नराधीशान्संतोष्य गजवाजिभिः । प्रेषयामास ते सर्वे जग्मुः खं स्वं पुरं प्रति।।१३७ कर वे भूपगण अपने घर चले गये ।। १२७ । विद्याधर और भगोचरी राजाओंको भी नागपाशके बंधनसे विमुक्त कर योग्य कार्यको जाननेवाले जयकुमारने योग्य भाषणसे सबको सन्तुष्ट किया ॥ १२८ ॥ . [ अर्ककीर्तिका अक्षमालाके साथ विवाह ] शुभ मनोरथ धारण करनेवाले भव्य अकंपन और जयकुमारने अर्ककीर्तिको नमस्कार कर उसकी स्तुति की। और अतिशय भक्ति से वे इसप्रकार बोले ॥ १२९ ॥ हे कुमार, हमारे वंशोंकी उत्पत्ति आपने की है तथा उनको आपहीने वृद्धिंगत किया है । वे तुम्हारे द्वारा नष्ट नहीं होंगे; क्योंकि हम आपके सेवक हैं । पुत्र, बंधु और सेवकोंके सैंकडों अपराधोंकी भी महात्मा क्षमा करते हैं और यही उनका भूषण है। हम अविवेकियों द्वारा यह एक अपराध हुआ है । हम आपके बंधुसेवक हैं । हे कुमार, हमारे अपराध क्षमा करें । हे कुमार, मुलोचना क्या चीज है ? हमारा सभी धन आपहीका है। यदि आप त्वयंवर करनेके लिये निषेध करते तो हम इसको रोक देते ॥ १३३ ॥ हे कुमार, आप सर्व जगतको जीवन देनेवाले हैं। परंतु किसी पापी व्यक्ति के द्वारा अग्निके समान आप संतप्त किये गये हैं। अब आप हमारे लिये जलके समान शांत हो जाइये ॥ १३४ ॥ इस प्रकार कुमारको प्रसन्न और संतुष्ट कर उसे बडे हाथीपर बैठाकर उन्होंने आदर किया, और विद्याधर तथा भूगोचरोंके साथ अकंपनादिक उसकी सेवा करने लगे ॥१३५॥ अकम्पनने सर्व धनसम्पत्ति तथा लक्ष्मीमति जिसका अपर नाम है ऐसी अक्षमाला नामक कन्या भी अर्ककीर्तिको देकर उसे विदा किया ॥१३६॥ अन्यराजाओंको भी हाथीघोडोसें संतुष्ट कर विदा किया। वे भी अपने अपने नगरको चले गये ॥ १३७ ॥ उस समय नागासुरने आकर जयशाली जयकुमारके साथ बड़े वैभवसे सुलोचनाका विवाह करवाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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