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________________ F42 ॐ | श्री जिनेन्द्र ने बारहवें गुणस्थान में पदार्पण किया । बारहवें गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त था एवं वहाँ पर “एकत्ववितर्कविचार' नाम का दूसरा शुक्लध्यान प्रगट होता है; इसलिए बारहवें गुणस्थान में ‘एकत्ववितर्कविचार' नामक दूसरे शुक्लध्यान की कृपा से मोहनीय-कर्म के सिवाय शेष के कर्म--अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय-- इन तीन घातिया-कर्मों का भी सर्वथा नाश कर दिया। चारों घातिया-कर्मों के सर्वथा नाश से उन तीन जगत् के स्वामी तीर्थंकर के समस्त लोक एवं अलोक के चर-अचर पदार्थों को साक्षात् प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्रगट हो गया, जो कि अपने स्वरूप से समस्त जगत् को आश्चर्यित करनेवाला था एवं जिस क्षण में उत्पन्न हुआ था, उसी क्षण || में मुक्ति के लिए दर्पण स्वरूप था; अर्थात् जिस प्रकार दर्पण में मुक्ति का स्वरूप साक्षात् प्रतिभाषित होता है, उसी तरह वस्तु का स्वरूप साक्षात् उसके अन्दर प्रतिभाषित होता था ।।८२-८४।। तीर्थंकर को केवलज्ञान की प्राप्ति होते ही उसके माहात्म्य से स्वर्गों के अन्दर घण्टे अपने-आप बजने लगे। ज्योतिषी देवों के भवनों में शंख-ध्वनि होने लगी, भवनवासी देवों के भवनों के अन्दर शंखनाद होने लगा एवं व्यन्तर निकाय के देवों के भवनों में भेरियों का उन्नत शब्द होने लगा, जिससे भगवान के केवलज्ञान की सूचना सर्वत्र हो गई। उस समय कल्पवृक्षों से नवीन पुष्पों की वृष्टि होने लगी। शीतल मंद सुंगध पवन बहने लगा । समस्त दिशायें निर्मल हो गई एवं वैमानिक देवों के आसन चल-विचल हो उठे ।।८५-६७।। इस प्रकार के अनेक आश्चर्यों को देख कर इन्द्रों ने यह निश्चय कर लिया कि तीर्थंकर को 'केवलज्ञान' प्राप्त हो गया है। वे शीघ्र ही अपने-अपने आसनों से उठे एवं तीन जगत् के गुरु तीर्थंकर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ।।१८।। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने श्री मल्लिनाथ भगवान का केवलज्ञान महोत्सव करने के लिए तैयारियाँ की एवं जिस प्रकार सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने तैयारियाँ की, उसी प्रकार जितने भी इन्द्र श्री मल्लिनाथ भगवानके केवलज्ञान महोत्सव में आनेवाले थे, सबों ने तैयारियाँ करनी प्रारम्भ कर दी ।।६।। भगवान के केवलज्ञान महोत्सव में जाते समय 'वलाहक' नाम के देव ने 'कामक' नाम के विमान की रचना की। यह विमान एक लाख | || ७८ योजन चौड़ा था एवं महामनोज्ञ मोतियों की मालाओं से शोभायमान था ।।६।। अत्यन्त चतुर 'नागदत्त' नाम के अभियोग्य जाति के देव ने उस समय ऐरावत गजराज की रचना की, जो कि लाख योजन प्रमाण अत्यन्त सुडौल शरीर का धारक था, बजते हुए घण्टों के शब्द से अत्यन्त शोभायमान था, छोटी-छोटी घण्टियों एवं चमरों से अलंकृत था, 444 Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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