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________________ 42FFFF अनन्त कल्याण स्वरूप मोक्ष के सुखों में आप पूरी-पूरी अभिलाषा रखनेवाले हैं; बाह्य-आभ्यन्तर समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित हैं परन्तु रत्नत्रयरूपी अचिंत्य धन के आप स्वामी हैं । संसार की समस्त स्त्रियों में यद्यपि आप अभिलाषा रहित हैं तथापि मोक्षरूपी स्त्री के साथ संगम करने के लिए आपकी पूरी-पूरी इच्छा है । हे देव ! यद्यपि आपने यहाँ की राज्य-विभूति का सर्वथा त्याग कर दिया है; परन्तु तीन लोक के राज्य प्राप्त करने में लोलुपता पूरी | है। आपने दो उपवासों का नियम ले रक्खा है. इसलिए यद्यपि आप उपवासयक्त हैं तथापि निरन्तर समीचीन ध्यानरूपी अमत का आप पान करते रहते हैं। यद्यपि सब बातों में आप धीर-वीर हैं; किसी आपत्ति के आ जाने क्षोभ को प्राप्त नहीं होते. इसलिए अक्षोभ्य हैं तथा अत्यन्त चतर हैं; परन्त कर्मों के बन्ध करने में कातर--डरनेवाले हैं अर्थात यह आप को सदा भय लगा रहता है कि कहीं मेरे कर्मों का बन्ध नहीं हो जाए; इसलिए उनके बन्ध नहीं होने के लिए आप पूरी-पूरी चेष्टा रखते हैं। उस समय कर्मों के बाँधने में आपकी धीरता-वीरता एक ओर किनारा कर जाती है एवं कर्मों के बन्ध से चित्त उथल-पुथल हो जाता है ।।५७-६०।। हे भगवान ! आप राग-द्वेष आदि के अन्दर वीतराग हैं --उन्हें अपनाना नहीं चाहते; परन्तु मोक्ष के सिद्ध करने में अत्यन्त रार्ग हैं--सदा मोक्ष की प्राप्ति के कारणों की आप चेष्टा करते रहते हैं; यद्यपि शत्र तथा मित्रों के समान मानने के कारण आप क्षमावान हैं तथापि कर्मरूपी बैरियों को आप अपने पास तक नहीं फटकने देना चाहते, सदा उनका नाश करने के लिए प्रवत्त रहते हैं ।।६।। हे भगवान ! यद्यपि संसार की तुच्छ लक्ष्मी में आपका किसी प्रकार का लाभ नहीं इसीलिए उसे त्याग कर आपने पवित्र जिन-दीक्षा धारण की है तथापि तपरूपी लक्ष्मी के लिए आप बड़े लोभी हैं-- एक क्षण के लिए भी तपरूपी लक्ष्मी से विमुख होना नहीं चाहते । आप अपने शरीर आदि में सर्वथा ममत्वरहित निर्मोही हैं; परन्तु मोक्षरूपी स्त्री पर आपका पूरा-पूरा स्नेह है। उसकी प्राप्ति के लिए आप कोई भी बात उठा रखनेवाले नहीं हैं ।।६।। हे स्वामी ! कुमारावस्था में कामदेव का जीतना अत्यन्त कठिन है, परन्तु आपने कुमारावस्था || ७५ में ही मोह तथा इन्द्रियरूपी बैरियों के साथ कामदेवरूपी बलवान शत्रु को देखते-देखते नष्ट कर डाला । आपके समान अन्य कोई महापुरुष नहीं है, अतएव हे देव ! आप उत्तमकोटि के बाल-ब्रह्मचारी हैं, इसलिए आपको नमस्कार है । आप मोह के विकारों से रहित निर्मोह हैं, अत्यन्त शान्त हैं एवं तपरूपी लक्ष्मी से शोभित हैं, इसलिए आपको Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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