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________________ || नहीं होती है, तबतक वास्तविक सुख भी प्राप्त नहीं हो सकता है । इसलिए यह भोगों की अभिलाषा ही वास्तविक सुख की बाधक है ।।६६।। इसलिए जो पुरुष भोगों के स्वरूप के वास्तविक रूप से जानकार हैं एवं मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं । उन्हें चाहिए कि वे भोगों का स्वरूप अच्छी तरह जान कर सबसे पहिले इन भोगों को दूर से ही त्यागें । क्योंकि ये भोग साक्षात् सर्प के समान हैं; अर्थात् सर्प जिसे डॅस लेता है, वह फिर शीघ्र उछंगता नहीं, उसी प्रकार भोगरूपी सर्पो का डॅसा हुआ भी शीघ्र नहीं उछंगता तथा ये भोग हलाहल विष के समान हैं अर्थात् जिस प्रकार हलाहल विष को पीनेवाला बचता नहीं है, उसी प्रकार भोगों का काटा हुआ भी नहीं बचता । इसीलिए ये विषय || म शत्रु-स्वरूप हैं, क्योंकि इनसे किसी प्रकार की भलाई की आशा नहीं है ।।६७।। इसीलिए जो महानुभाव मुमुक्ष हैं, संसार के समस्त प्रकार के बन्धनों को तोड़ कर केवल मोक्ष ही चाहनेवाले हैं; उन्हें विवाह आदि का कार्य सर्वथा छोड़ देना चाहिए। क्योंकि यह विवाह आदि का कार्य अत्यन्त लज्जा का कारण है, मोक्ष सुख का घात करनेवाला है एवं || संसार में घुमानेवाला है ।।६८।। फिर भी यह बात है कि यह विवाह मिथ्या मंगलों से युक्त है; अर्थात् विवाह में जितने || भी मंगलाचरण किए जाते हैं, वे सब मिथ्या हैं । समस्त दुःख आदि विपत्तियों का समुद्र है एवं विवाह होते ही सैकड़ों प्रकार की चिन्ताएँ पीछे लग जाती हैं; इसलिये यह सैकड़ों प्रकार की चिन्ताओं का कारण है; इसलिये यह विवाह कभी || भी कल्याण का करनेवाला नहीं हो सकता--जो महानुभाव इसे कल्याण का करनेवाला समझते हैं, उन्हें केवल भ्रम | ही है ।।६६। मनुष्य आदि का शरीर साँकल से जकड़ कर बाँधा जाता है; परन्तु यह 'स्त्री' साँकल के बिना ही भीतर-बाहर दोनों प्रकार से बाँधनेवाली है; अर्थात् अन्तरंग में मोह की तीव्रता से मनुष्य स्त्री को छोड़कर नहीं जा सकता एवं बाहिर में जब छोड़ कर चलता है, तब वह उसके पीछे पड़ती है; इसलिये भी छोड़ कर नहीं जा सकता । यह स्त्री खोटे फलों को धारण करनेवाली संसाररूपी बेल है; अर्थात् बेल पर अच्छे-बुरे सब प्रकार के फल आते हैं; परन्तु स्त्रीरूपी संसार बेल से सदा दुष्ट फलों की ही प्राप्ति होती है । विशेष क्या ? यह स्त्री साक्षात् नरक का ||६६ मार्ग है ।। १००।। पुत्र जिनको कि संसार में उत्कृष्ट पदार्थ माना जाता है, वे महा शत्रु हैं एवं संसार के समस्त धन-धान्यों का भक्षण करनेवाले हैं । लक्ष्मी जो कि संसार में बहुत बड़ी वस्तु मानी जाती है, इन्द्रजाल के समान निस्सार है; क्योंकि जिस प्रकार इन्द्रजाल का ठाट-बाट देखते-देखते विलीन हो जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मी का वैभव FF Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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