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________________ FFFF अमृत झरता था, जो कि मृत्युरूपी महा हलाहल विष का हरण करनेवाला था, इसलिए अनुपम गुणों के धारक उन तीर्थंकर का जितना भी वर्णन किया जाए, सो थोड़ा है ।।७७।। तीर्थंकर अपने वक्षःस्थल में मणिमयी हार पहिनते थे एवं वह नाभिमंडल पर्यन्त लटकता रहता था; उस मणिमयी हार से उनके वक्षःस्थल एवं नाभि दोनों ही अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे। उनकी दोनों भुजायें केयूरों (भुजबन्धों) से शोभायमान रहती थीं एवं वे कल्पवृक्ष की लता सरीखी जान पड़ती थीं ।।७८|| तीर्थंकर का महामनोहर कटिभाग करधनी एवं उत्तम वस्त्र से शोभायमान रहता था। उनकी दोनो जंघायें केले के खम्भों के समान अत्यन्त कोमल थीं ।।७६।। तीर्थंकर के चरणकमलों की सेवा तीनों लोक के इन्द्र सदा किया करते थे एवं वे नखरूपी चन्द्रमाओं से शोभायमान रहते थे; इसलिए उनके असली स्वरूप का वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं था ।।८।। इस प्रकार ऊपर कहे गए अनेक प्रकार के वर्णनों से युक्त अत्यन्त मजबूत वज्रमयी हड्डियों से बना हुआ आदि संहनन--वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त आदि संस्थान-समचतुरन संस्थान से शोभायमान, पच्चीस धनुष प्रमाण ऊँचा, तपे हुए सुवर्ण के समान कांति का धारक, स्वभाव से ही सुन्दर, इसदिव्य संसार में जितने भी पुण्यस्वरूप परमाणु थे, उनके समूह-स्वरूप तीर्थंकर का अनुपम औदारिक शरीर दिव्य आभूषण, महा वस्त्र, कांति एवं यौवन आदि की परिपूर्ण शोभा से अत्यन्त लावण्यमान जान पड़ता था ।।८१-८३।। भगवान श्री मल्लिनाथ की आयु पचपन हजार वर्ष की थी वह समस्त प्रकार की बाधाओं से रहित थी, अपने-पराया का हित करनेवाली थी एवं अखण्डित थी ।।४।। तीर्थंकर ने सौ वर्ष पर्यंत उत्तमोत्तम भोग भोगे जो कि मनुष्य लोक में देवों के द्वारा उपनीत थे, कुमार तीर्थंकर के योग्य थे एवं उनका उदय अशुभ नहीं होकर शुभ था ।।८।। ___एक समय अपनी युवावस्था में अनेक देव, विद्याधर एवं राजाओं से सेवित भगवान श्रीमल्लिनाथ सानन्द विराजमान थे कि उनके पिता पुत्र-स्नेह से प्रेरित होकर उनके पास आये एवं “आगे भी वंश की वृद्धि हो" इस अभिलाषा से वे भक्तिपूर्वक उनसे यह कहने लगे-- "प्रिय पुत्र ! इसी पृथ्वीमण्डल पर पृथ्वीपुर नाम का एक नगर है । उसका पालन करनेवाला राजा भूपाल है, उनके एक “जगद्रति' नाम की कन्या है, जो कि अपने अनुपम रूप एवं गुणों से पृथ्वी पर प्रसिद्ध है--वह तुम्हारे सर्वथा योग्य है । मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि तुम उसके साथ विवाह करना स्वीकार करो" ।।८६-८७।। समस्त प्रकार के चातुर्यों के जानकार भगवान श्रीमल्लिनाथ ने अपने पिता के र | ६४ Jain Education International For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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