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________________ म॥ दवा का 44 मुनिगण विहार करते थे ।।६२।। वहाँ कोई-कोई पवित्र तीर्थों की यात्रा की तैयारियाँ करते थे। तो कोई-कोई धर्म की प्रभावना करनेवाले कार्य करते थे एवं कोई-कोई भगवान श्री जिनेन्द्र की पूजा आदि का बड़े ठाट-बाट से समारोह करते थे; इसलिए उस देश में तीर्थ-यात्रा, धर्म-प्रभावना एवं भगवान श्री जिनेन्द की पूजा आदि का उत्सव सदा होता रहता था ।।६३।। उस बंग देश में उत्पन्न होनेवाले कोई-कोई विद्वान पुरुष घोर तपों को तप कर मोक्ष प्राप्त करते एवं कोई वास्तविक रूप से गृहस्थ-धर्म के पालन करनेवाले पुरुष उस गृहस्थधर्म की कृपा से, जहाँ पर लौकान्तिक || देवों का निवास स्थान है, ऐसे पाँचवें स्वर्ग में जाकर जन्म धारण करते थे ।।६४।। कोई-कोई महानुभाव उत्तम पात्रों में आहार आदि दानों के देने से सदा सुखस्वरूप भोगभूमि के सुख का रसास्वादन करते थे एवं कोई-कोई पुण्यात्मा || भक्तिपूर्वक भगवान श्री जिनेन्द्र आदि की पूजा कर दिव्य इन्द्रपद प्राप्त करते थे ।।६।। बंग देश में उस समय जैनधर्म का ही सर्वत्र प्रचार था एवं उसके द्वारा लोग सदा स्वर्ग एवं मोक्ष पदों को प्राप्त करते थे; इसलिए परम धर्म के स्थान एवं स्वर्ग-मोक्ष के कारण उस देश में सदा अमृत पान करनेवाले देवगण भी जन्म धारण करने की अभिलाषा करते थे ।।६६।। __इस प्रकार उत्तम वर्णन के धारक बंग देश में एक मिथिला नाम की नगरी है, जो कि मनुष्य के शरीर में नाभि || (टुंडी) के समान ठीक उस देश के मध्य भाग में है । अपनी अनुपम शोभा से स्वर्गपुरी के समान है एवं सर्वत्र धर्मात्मा लोगों से भरी रहने के कारण अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती है ।।६७।। जिस प्रकार ऊँचे-ऊँचे परकोटे, विस्तीर्ण वीथियाँ (गलियाँ) एवं गहरी खाईयों से भूषित अयोध्या की शोभा शास्त्र में वर्णित है, उसी प्रकार मिथिलापुरी में भी उस समय बड़े ऊँचे-ऊँचे परकोटे थे। विस्तीर्ण वीथयाँ थीं एवं चारों ओर गहरी खाई थी; इसलिए वह साक्षात् अयोध्या सरीखी जान पड़ती थी तब उसमें अयोध्या के समान बड़े-बड़े वीर पुरुषों का निवास स्थान था; इसलिए वह शत्रओं के लिए अगम्य थी, कोई भी शत्र उस समय उसकी ओर नेत्र उठा कर भी नहीं देख सकता था ।।६।। उस मिथिलापुरी के बड़े-बड़े महलों के अग्रभागों में रंग-बिरंगी अनेक ध्वजाएँ लगी हुई थीं जिनके वस्त्र पवन के झकोरों से फरहरा रहे थे, उससे ऐसा जान पड़ता था कि अनेक प्रकार की ऋद्धियों से शोभायमान मिथिलापुरी अपनी ऋद्धियों का भोग कराने के लिए देवों को बुला रही हो ।।६६।। बड़े-बड़े ऊँचे तोरणों से भूषित एवं अटारियों से Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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