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________________ मा महापूजा का प्रतिदिन करना प्रारम्भ कर दिया। वह नरपाल मोक्षलक्ष्मी की प्रचुर लालसा से प्रतिदिन उत्तम पात्रों को आहार, औषध आदि चारों प्रकार का दान देने लगा, किसी भी दीन अवस्था में जैन-धर्म पालन करनेवालों का वह निरीह एवं निर्मल वृत्ति से बड़े हर्ष से उपकार करने लगा एवं साधर्मी भ्राताओं में गाय-बछड़े के समान प्रेम दर्शा कर परिपूर्ण वात्सल्य अंग का उसने पालन करना आरम्भ कर दिया ।।६१-६२।। वह महानुभाव राजा वैश्रवण अष्टमी, चतुर्दशी आदि समस्त पर्यों में ऊपर कही गई विधि के धारक प्रोषध व्रत का आचरण करने लगा एवं निर्मल भावों से गृह के कार्यों से सर्वथा विमुख हो वह पवित्र आचरण कर शुभ आचरण करनेवाले यति के समान हो गया ॥६३।। अहिंसा, अचौर्य, सत्य, स्वदारा-सन्तोष एवं परिग्रह परिमाण--ये पाँच अणुव्रत, दिग्वत, भोगोपभोग परिमाणव्रत एवं अनर्थदण्डव्रत--ये तीन गुणव्रत एवं देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास तथा वैयावृत्य--ये चार शिक्षाव्रत इस प्रकार श्रावकों के बारह व्रत हैं । राजा वैश्रवण मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक पाँचों अणुव्रत, तीनों गुणव्रत तथा चारों प्रकार के शिक्षाव्रतों का निर्दोषरूप से बड़े यत्न के साथ पालन करने लगा ।।६४।। वह महानुभाव उस दिन से अज्ञान की सर्वथा निवृत्ति के लिए तथा ज्ञान सम्पादन करने के लिए भगवान अहंत (जिनेन्द्र) के मुख से उत्पन्न जैन शास्त्रों का श्रवण तथा मनन करने लगा तथा उससे मुक्ति प्राप्ति की अभिलाषा चित्त में करने लगा ।।६।। हितकारी तथा परिमित वचनों का बोलनेवाला वह वाग्मी राजा वैश्रवण सभा में रहनेवाले समस्त प्राणियोंको उनका उपकार हो-- इस पवित्र अभिलाषा से प्रतिदिन दिव्य तथा मनोहर वचनों में धर्मोपदेश देने लगा।।६६।। जहाँ से अगणित आत्माओं से मोक्ष प्राप्त किया है; ऐसे तीर्थों की यात्रा करना, जिनेन्द्र आदि की पूजा करना, उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करना, उत्तम पात्रों का आहार आदि दान देना तथा भक्तिपूर्वक शीलव्रत आदि का पा इस प्रकार के पुण्य को उत्पन्न करनेवाले पवित्र कार्यों से वह राजा सदा ही धर्म का आचरण करने लगा ।।६७। वह राजा चित्त में जिस किसी भी पदार्थ के बारे में विचार करता था, उस समय केवल धर्म का ही विचार करता, २३ धर्म के विचार के सिवाय अन्य किसी विचार को उसके हृदय में जगह नहीं मिलती थी। जब कभी वह मनुष्यों के सामने कुछ वचन बोलता था, उस समय धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला ही वचन बोलता था, उसके मुख से सिवाय | धर्म सम्बन्धी वचन के अन्य वचन नहीं निकलता था । शरीर से भी वह धर्म की क्रियाओं का ही आचर करता Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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