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________________ चतुर्थ सग! क्षात्रं तेजो जगद्व्यापि परसंरक्षणक्षमम् । पराभवेन संबन्धस्तस्य स्वप्नेऽपि कि भवेत् ।।२६॥ दमितारेः सुतां हृत्वा तमेवाह्वयते नरः । गच्छन् प्रतिनिवृत्त्यको 'युद्धायेत्यश्रुतं श्रुतम् ।।३०।। एतत्परोपरोधेन क्षमस्व यदि ते क्षमा। निर्दाक्षिण्या निकारातः क्षमितुं न क्षमा वयम् ।।३१।। इति संरम्भिरणस्तस्य वाणीमाकर्ण्य चक्रिणम् । उत्तिष्ठासुनिषिध्यैवं मन्त्री सुमतिर ब्रवीत् ।।३२।। अस्मिन्नवसरे युक्तं परं शस्त्रोपजीविभिः । प्राणपण्यैरिदं वक्तुं स्वामिसंभावनोचितम् ।।३३।। तथापि नय एवात्र चिन्तनोयो मनीषिभिः । क: सचेता ग्रहस्येव कोपस्यात्मानमर्पयेत् ।।३४।। पादपीठीकृताशेषखेचरेन्द्रशिखामरिणः । नृकोटाभ्यामिति क्रुध्यन् पकौलीनान बिभेषि किम् ॥३५ । स्वहस्तनिहतानेकदन्तिदानाकेसरः । शृगालपोतकं सिंहः कुपितोऽपि हिनस्ति किम् ।।३६।। प्रभो। शान्तिः स्त्रियो लज्जा शौयं शस्त्रोपजीविनः । विभूषणमिति प्राहुर्वैराग्यं च तपस्विनः ॥३७॥ क्षमावान्न तथा भूम्या यथा क्षान्त्या महीपतिः । क्षमा हि तपसा मूलं जनयित्री च संपदाम् ।।३८।। रक्षा करने में समर्थ है उसका क्या स्वप्न में भी पराभव से सम्बन्ध हो सकता है ? ॥२६।। दमितारि की पुत्री को हर कर जाता हुअा एक मनुष्य लौट कर युद्ध के लिये उसी को बुलाता है ...... यह अश्रुत पूर्व बात सुनी है ।।३०।। यदि आपकी क्षमा है तो दूसरों के उपरोध से आप भले ही क्षमा कर दें परन्तु सरलता से रहित और पराभव से दुखी हम लोग क्षमा करने के लिये समर्थ नहीं हैं ॥३१॥ इस प्रकार क्रुद्ध महा बल की वाणी सुनकर उठने के इच्छुक चक्रवर्ती को रोकता हुआ सुमति मन्त्री ऐसा कहने लगा ।।३२।। __इस अवसर पर प्राणों की बाजी लगाने वाले शस्त्र जीवी पुरुषों को यद्यपि स्वामी के सन्मान के अनुरूप यही कहना उचित है ।।३३।। तथापि बुद्धिमान् मनुष्यों को यहां नय का विचार करना चाहिये क्योंकि कौन विचारवान् मनुष्य अपने आपको ग्रह के समान क्रोध के लिये समपित करता है ? अर्थात् कोई नहीं। भावार्थ-जिसप्रकार कोई अपने आपको पिशाच के लिये नहीं सौंपता है उसीप्रकार विचारवान् जीव अपने आपको क्रोध के लिये नहीं सौंपता है ।।३४।। जिसने समस्त विद्याधर राजाओं के शिखामरिण को अपना पाद पीठ बनाया है ऐसा चक्रवर्ती नरकीटों-भूमिगोचरी (क्षुद्र-मनुष्यों से क्रोध करता है, इस निन्दा से क्यों नहीं डरता? ।।३५।। अपने हाथ से मारे हुए अनेक हाथियों के मद जल से जिसकी अयाल (ग्रीवा के बाल) गीली हो रही है ऐसा सिंह कुपित होने पर भी क्या शगाल के बच्चे को मारता है ? ॥३६॥ प्रभु का आभूषण क्षमा है, स्त्री का आभूषण लज्जा है, शस्त्रोपजीवी-सैनिक का आभूषण शूर वीरता है, और तपस्वी का आभूषण वैराग्य है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं ।।३७।। राजा भूमि के द्वारा उसप्रकार क्षमावान् नहीं होता जिसप्रकार शान्ति के द्वारा क्षमावान् होता है । निश्चय से क्षमा ही तप का मूल है और सम्पत्तियों की जननी है । भावार्थ-क्षमा नाम पृथिवी का भी है इसलिये क्षमा-पृथिवी से युक्त होने के कारण राजा क्षमावान् नहीं होता उससे तो पृथिविमान् होता है परन्तु शान्ति या क्षमा के द्वारा सच्चा क्षमावान् होता है ।।३।। १ प्राक् कदाचित् न श्रुतम् २ उत्थातु मिच्छम् ३ सैनिकः ४ प्राणा-पण्या येषां तैः ५ निन्दायाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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